“राज़-ए-इश्क़” ग़ज़ल
कौन सा ज़ख़्म नया,अब वो, देने आये हैं,
देखकर मुझको,आज फिर वो मुस्कुराये हैं।
कैसे कह दूँ, कि हर सिमत ही ख़ुशगवारी है,
चाँदनी रात मेँ भी, कुछ मुहिब से साए हैँ।
हमें न पाठ, पढ़ाएं वो, सब्र का हरगिज़,
पिए हैं अश्क़, पर शिकन न रुख़ पे लाए हैं।
करेंगे क्या, वो गिला मुझसे, बताए कोई,
हम तो उल्फ़त की, हरेक रस्म को निभाए हैं।
भले ही रब्त, उस्तवार हम, करते ही रहे,
न जाने क्यूँ उन्हें तो ग़ैर ही, पर, भाए हैं।
यूँ तो अब गुफ़्तगू, उनसे, नही होती मेरी,
दिल मेँ मेरे तभी भी, वो ही वो, समाए हैं।
राज़-ए-इश्क़, दफ़न हो चुका कब का दिल मेँ,
लबों पे नाम, न लाने की, क़सम खाए हैं।
रहगुज़र उनकी, मनव्वर रहे, इसी ख़ातिर,
हम तो मुद्दत से,अपने दिल को ही,जलाए हैं।
कौन किसका हुआ,जहाँ मेँ,कहूँ क्या”आशा”,
जो थे अपने, वो आज, हो गए, पराए हैं..!
सिमत # तरफ़, ओर, towards, direction etc.
मुहिब # डरावने, frightening
उल्फ़त # प्रेम, love
रब्त # रिश्ता, relationship
उस्तवार # मज़बूत करना, to strengthen
रहगुज़र # रास्ता, pathwayमनव्वर # प्रकाशित, illuminated
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