” राजनीति के रक्तबीज “
स्वर्ण युग था मेरे देश में,
चारो तरफ हरियाली था।
धन सम्पदा से भरा हुआ,
हर घर में खुशहाली था।
व्यापारी का वेश बनाकर,
गोरे बहरूपिए आ गए।
धीरे धीरे पुरे देश पर,
अपने व्यापार फैला गए।
गुलामी के जंजीरों में,
बंध गए भारत देश।
अत्याचार बढ़ने लगे,
अब कौन मिटाए क्लेश।
आजादी के दीवानों ने,
तब खूब लड़ी लड़ाई ।
न जाने कितने शव देकर,
हमनें आजादी है पाई।
फिर जन्म लिए मेरे देश में,
राजनीति के रक्तबीज।
धीरे धीरे अपने अगोस में,
करने लगे है अब हर चीज।
सत्ता पाने रक्तबीज,
तपस्या करने लगें।
अवघट दानी देश की जनता,
मतदान (दान) करने लगें।
वरदानी रक्तबीजों ने,
अत्याचार करने लगे।
महगाई और बेरोजगारी से,
दानवीर (कर्ण) जनता रोने लगे।
फिर रक्तबीजों में छिड़ी लड़ाई,
सत्ता खुर्सी पाने को।
खुर्सी चाहें किसी को भी मिलें,
लगें है देश बेच कर खाने को।
अब उठो मेरे देश की जनता,
धरकर रूप चंडिका का ।
मताधिकार के खप्पर से,
अब नष्ट करो रक्तबीजों का ।।