राजनीति और समाज सेवा अलग अलग हैं?
यूँ तो समाज सेवा और राजनीति दोनों अलग अलग हैं। लेकिन दोनों एक दूसरे के पूरक भी बनते रहते हैं। ऐसा कोई अनिवार्य सिद्धांत भी नहीं है। कोई भी व्यक्ति समाज सेवा तो कर सकता है, लेकिन हर कोई व्यक्ति राजनीति नहीं कर सकता है।
समाज सेवा के लिए संवेदनशीलता और निस्वार्थ भाव आवश्यक है, जबकि राजनीति के लिए ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है। बीते समय में राजनीति को सेवा का माध्यम जरुर माना जाता था। तब स्वार्थ, धन संपत्ति संग्रह, परिवार को आर्थिक, राजनैतिक रूप से मजबूत होने, परिवार, संबंधियों को मजबूत करने, भ्रष्टाचार, अपराध, व्यवसाय को अलग ही रखा जाता था। लेकिन आज ऐसा सिर्फ अपवाद स्वरूप ही देखने में आता है। राजनीति की आड़ में ठेका, पट्टा, अपराध, रौबदाब और वर्चस्व का लालच होता है। अपवादों को छोड़ दिया जाए तो आज राजनीति की आड़ में समाज सेवा के माध्यम से अपनी छवि चमकाने, मसीहा बनने, जनबल बढ़ाने और चुनाव जीतने की पृष्ठभूमि तैयार करने की कोशिश भर होती है। समाज सेवा की आड़ में राजनेताओं द्वारा काले कारनामे, भ्रष्टाचार, अपराध ही नहीं काला धन सफेद करने का खेल डंके की चोट पर किया जाता है। जिसे बड़ी खूबसूरती से जनता के प्यार का आवरण की आड़ में अपनी पीठ थपथपाया जाता है। इसके अनेकों उदाहरण सामने आते ही रहते हैं।
जबकि समाज सेवा नितान्त निजी/पारिवारिक सोच, क्षमता और धन पर निर्भर है। जिसका कोई निश्चित दायरा और आर्थिक अनिवार्यता नहीं है। समाज सेवा के अनेक विकल्प हैं। जिसमें धन या जनबल की जरूरत नहीं होती है। रक्तदान, देहदान, अंगदान, किसी निर्धन, असहाय, गरीब की आर्थिक, शारीरिक, व्यवहारिक रूप से सहायता, प्यासे को पानी पिलाना, भूखे को भोजन कराना आदि और भी बहुत सारे विकल्प हैं, जिसमें किसी भी तरह के स्वार्थ या विकल्प को छिपा कर नहीं किया जाता, जिससे समाज की सेवा की जा सकती है और की भी जा रही है।
इसलिए मेरा मानना है कि समाज सेवा और राजनीति दोनों अलग अलग ही थे, हैं और आगे भी रहेंगे। दोनों का घालमेल का मतलब साफ है छुपा हुआ स्वार्थ।जो किसी भी रूप में हो सकता है, जिसे समाज सेवा और राजनीति के एक तराजू में तौलने का मुझे तो कोई औचित्य समझ में नहीं आता। हाँ! अपवाद देखने को मिल जाए तो उसे उदाहरण नहीं बनाया जा सकता।
सुधीर श्रीवास्तव