राग दरबारी
छोड़ दे सरकार की
जी-हजूरी, ऐ साथी
ऐसी भी क्या तेरी
मज़बूरी, ऐ साथी…
(१)
ख़ुद ही इस देश के
वे लोग हैं नौकर
तू जिनकी कर रहा
चापलूसी, ऐ साथी…
(२)
महंगाई से उनका
हाल होगा क्या
जो करके जी रहे
मज़दूरी, ऐ साथी…
(३)
गैरत से ज़्यादा
दौलत तो नहीं है
इंसान के लिए
ज़रूरी, ऐ साथी…
(४)
आंखों देखा सच
कहने के लिए
क्यों चाहिए किसी की
मंजूरी, ऐ साथी…
(५)
जुल्मत के दौर में
अच्छे दिन की बात
लगती है कितनी
बेसुरी, ऐ साथी…
(६)
रहनुमाई क़ौम की
क्या ख़ाक करेगी
वह शायरी जो है
दस्तूरी, ऐ साथी…
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Shekhar Chandra Mitra
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