राखी
समय मानो पंख लगा कर निकल गया अभी कुछ साल पहले की बात है फोन की घंटी बजी ट्रिन-ट्रिन मां का फोन ‘प्रणाम मां, कैसी हैं’ ?मां बोली -‘हम लोग ठीक हैं, तुम लोग कैसी हो बेटा? अपना ख्याल रखना’। ‘हां मां ठीक हूँ ‘। राखी बीते अभी 4 दिन हुए थे कि मैं जहां सोती हूं ,मेरी खिड़की के पीछे बिल्ली ज़ोर ज़ोर से रो रही थी जैसे किसी अपशकुन का संकेत दे रही हो, मेरा मन जोर से घबरा रहा था , सुबह के तीन बजे दीदी का फोन आया ‘तुम लोग जल्दी से रांची आ जाओ, मां की तबीयत ठीक नहीं ‘। हम आनन-फानन में रांची पहुंचे पर घर पहुंचते ही स्वागत करने वाली मां सजी-धजी जमीन पर सोई थी, बगल में ही मामी बैठकर कह रही थी ‘कितने प्रेम से गाना गा-गा का राखी बांध रही थी , दीदी अपने भाई को ‘भैया के लागे हमरी उमरिया जीत भैया लाख बरीस’ कितनी महान थी दीदी, लगता है अपनी उम्र सारी अपने भाई को दे गई’। नीचे सजी मां को देखकर ऐसा लग रहा था कि बस अभी कहने वाली है खूब खुश रहो बेटा ‘दूधो नहाओ पूतो फलो’ आज फिर राखी आ गई है और मेरा मन बहुत उदास है, ऐसा लग रहा है जैसे अभी मां का फोन आएगा ‘कैसी हो बेटा ? भैया की राखी मिल गई’।