राखी सांवन्त
डॉ अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
राखी सांवन्त
किसी से पूँछा , भीड़ में , चुटकी लेते हुये ,
राखी सांवत आज कल नजर नहीं आती ।
हमने कहा , भाई अब वो बदल गई है
उन सज्जन ने हैरानी से देखा और बोले ।
रहने दीजिए , धरती न उलटी घूमने लगेगी ,
उलट पुलट वार्तालाप , अंग प्रदर्शन करते वस्त्र ।
अगर राखी सांवत , जैसी महिला छोड़ देगी
हमने कहा कूड़े को सोना बनते देखा है हमने ।
डाकू को सम्मान से जीते देखा है हमने
अब उसने भी समाज की प्रथा को अपनाया है ।
हृदय परिवर्तन हो जाये जब तो सुख संतुष्टि आती है
देख लिया सब कुछ करके , कुछ न पाया है ।
खोखला – खोखला से आचरण हृदय ही दुखाया है
बहुत हो गया व्यभिचारण, अनर्गल हाव भाव ।
स्त्री शरीर लोलुप टपकती लार , वेधती आँखें
मेरे मन में भी मातारी बनने का सपना आया है ।
स्त्रीत्व का सबसे पवित्र रूप उसने भी अपनाया है
स्त्री होने का जगत में कर्तव्य सही से निभाया है ।