रहनुमा
हर रोज़ ईद का त्यौहार होता है ।
जब मुझे आपका दीदार होता है ।।
आपके नूर की रोशनी से हरदम ।
रोशन ये फ़लक हर बार होता है ।।
मुश्क़िलें हो जाती हैं आसां मेरी ।
दुआओं से बेड़ा पार होता है ।।
पड़ते हैं जब आपके मुबारक क़दम ।
बियाबां भी मुनव्वर गुलज़ार होता है ।।
मेरे अश्कों की तड़प देखकर ।
अब समंदर भी रेगज़ार होता है ।।
वो मेरा रहनुमा है “काज़ी ” ।
उससे ही मुझे प्यार होता है ।।
©डॉक्टर वासिफ़ काज़ी ,इंदौर
©काज़ीकीक़लम
28/3/2; इक़बाल कालोनी ,इंदौर
मध्यप्रदेश