रमज़ान ।
मैं रोज़ा रहू और तुम्हारे साथ इफ्तारी हो जॉए
काश नफरतें ख़त्म हो और अपनी यारी हो जाए ।
इक महीना ख़ुदा की इबादत में मशगूल हो जाओ
ताकि अपनी भी कुछ हश्र की तैयारी हो जाए ।
शहर में ताले पड़ गए और हम घरों में कैद बैठे है
दुआ करों तुम की अब ये ख़त्म बीमारी हो जाए ।
कोई ग़म से परेशां , कोई नफरत के आग़ोश में है
क्यू न मोहब्बत भी एक दूसरे की जिम्मेदारी हो जाए।
ख़ल्वत में तुम्हें सोचने की आदत सी पड़ गयी
काश तुम्हारी यादें भी यहां सरकारी हो जाए ।
सब एक हो , मोहब्बत से रहना लाज़िम हो ‘अनवर’
इस मुल्क में अब ऐसा भी बयान जारी हो जाए ।
– हसीब अनवर