रमेश कुमार जैन ,उनकी पत्रिका रजत और विशाल आयोजन
रमेश कुमार जैन ,उनकी अनियतकालीन पत्रिका “रजत” और विशाल आयोजन
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा ,रामपुर (उत्तर प्रदेश) मोबाइल 99976 15451
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आज 4 दिसंबर 2021 शनिवार को साहित्यिक अभिरुचि से संपन्न इतिहास के गहन शोधकर्ता श्री रमेश कुमार जैन मेरी दुकान पर पधारे । मेरा सौभाग्य ।
आत्मीयता पूर्वक इधर-उधर की बातें कुछ देर चलती रही । हाल ही में लिखी एक अतुकांत कविता आपने मुझे दिखाई, मैंने सराहा ।
एकाएक मेरे दिमाग में आपके द्वारा प्रकाशित रजत पत्रिका कौंध गई ।
“आप रजत पत्रिका भी तो निकालते थे ? कब से कब तक चली ?” मैंने रमेश कुमार जैन साहब से प्रश्न किया ।
उत्तर देने के लिए आपने अपनी जेब से एक छोटी सी डायरी निकाली । पूरी डायरी लिखित सामग्री से भरी थी । चलता-फिरता इतिहास हम उस डायरी को कह सकते हैं । 5 अक्टूबर 1986 को रजत पत्रिका का अंतिम अंक निकला था । पहला अंक 29 जनवरी 1977 को प्रकाशित हुआ था । उस समय आपातकाल चल रहा था। राज्यपाल डॉक्टर चेन्ना रेड्डी ने रामपुर पधार कर रजत पत्रिका का शुभारंभ किया था ।
“कार्यक्रम कहां हुआ था ? -मैंने पूछा।
” हमारे सभी कार्यक्रम आनंद वाटिका में ही होते थे। ”
मुझे स्मरण आता है कि आनंद वाटिका में कई दशक पहले मेरा कई बार जाना हुआ था । आनंद वाटिका एक सुंदर बाग है । तरह-तरह के पेड़ – पौधे इस बाग की शोभा बढ़ाते हैं । रामपुर-बरेली मार्ग पर यह आनंद वाटिका पड़ती है । 1985-90 के आसपास श्री रमेश कुमार जैन आनंद वाटिका में आमों की दावत भी करते थे तथा अनेकानेक कार्यक्रमों का आयोजन भी होता था । मुझे भी कुछ अवसरों पर आनंद वाटिका में जाने का लाभ प्राप्त हुआ था ,यद्यपि उस समय श्री रमेश कुमार जैन से मेरा व्यक्तिगत विशेष परिचय नहीं था ।
“रजत पत्रिका का अंतिम अंक 5 अक्टूबर 1986 को प्रकाशित हुआ था । इस अंक में हमने ज्ञान मंदिर ,सौलत पब्लिक लाइब्रेरी तथा रजा लाइब्रेरी के बारे में विस्तार से सामग्री प्रकाशित की थी । इसके अलावा रामपुर के नवाबों के बारे में भी विस्तार से इस अंक में बताया गया था । उड़ीसा के राज्यपाल श्री विशंभर नाथ पांडे ने इस अंक का विमोचन किया था ।”
“क्या आपको पता था कि यह रजत पत्रिका का अंतिम अंक है ?”
“अरे नहीं! बिल्कुल भी अनुमान नहीं था। पत्रिका आगे भी प्रकाशित होती ,लेकिन हुआ यह है कि मेरा एक्सीडेंट हो गया। फ्रैक्चर हुआ , छह महीने घर पर रहा । सारी गतिविधियां ठप्प हो गईं। पत्रिका का निकलना बंद हो गया । ”
“एकाध अंक रजत का आपके पास अतिरिक्त रुप से हो तो देखने के लिए कभी दीजिए ? “-मैंने श्री रमेश कुमार जैन से निवेदन किया ।
वह थोड़ा सोच में पड़ गए लेकिन स्पष्ट रुप से कह दिया ” हम घर पर जिस टाँढ पर गठरी बनाकर रजत के अंक रखे हुए थे ,उस में दीमक लग गई । रजत के अंक तो नष्ट हुए ही, अनेक बहुमूल्य पुस्तकें भी दीमक की भेंट चढ़ गईं।”
” फिर भी कुछ रजत के बारे में बताइए ?”- हमारा अगला प्रश्न था ।
“रजत में समाचार नहीं छपते थे । हम उसे एक साहित्यिक पत्र के रूप में आगे बढ़ाते थे। शोध पर आधारित सामग्री रजत की विशेषता होती थी। हमने इतिहास के बारे में बहुत सी जानकारियां रजत के माध्यम से जनता को पहुंचाईं।”
श्री रमेश कुमार जैन जिस ऊर्जा और जीवनी-शक्ति से भरे हुए हैं ,उसको देखते हुए यह कहना गलत न होगा कि रजत का एक दशक गंभीर साहित्यिक शोध-पत्रिकाओं के इतिहास का एक गौरवशाली स्वर्णिम अध्याय है ।
मुझे अनायास श्री विशंभर नाथ पांडे के कार्यक्रम का स्मरण हो आया । शायद 5 अक्टूबर 1986 के कार्यक्रम में ही मैं गया था। घर पर लौट कर मैंने सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक के पुराने प्रष्ठ पलटे तो अहिच्छत्र महोत्सव जो कि श्री रमेश कुमार जैन द्वारा 5 अक्टूबर 1986 को आनंद वाटिका रामपुर में आयोजित किया गया था ,उसकी एक रिपोर्ट मेरे द्वारा लिखित एवं प्रकाशित मिल गई । मेरा आनंद दोगुना हो गया । 11 अक्टूबर 1986 अंक की प्रकाशित रिपोर्ट इस प्रकार है:-
★★★★★★
आनंद वाटिका में अहिच्छत्र महोत्सव
★★★★★★
(रवि प्रकाश द्वारा लिखित रिपोर्ट सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक, रामपुर ,उत्तर प्रदेश अंक दिनांक 11 अक्टूबर 1986 )
कौन कहता है कि बाबू आनन्द कुमार जैन संस्थान द्वारा आनन्द वाटिका, रामपुर में मनाया गया ‘अहिच्छत्र महोत्सव” मात्र जैनियों का उत्सव था ! यह उत्सव तो उन सबका था जो अहिच्छत्र से अपने आप को जोड़ते हैं, भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर की शिक्षाओं के नैतिक और मूल्यवान तत्वों से नाता स्थापित करने का प्रयास करते हैं। 5 अक्टूबर के दिन दो घन्टे से ज्यादा गुजारे गये वैचारिक क्षण इतिहास के विस्मृत जीवन-मूल्यों के स्मरण की कोशिश को समर्पित रहे । अहिच्छत्र (जिसे अहिच्छत्र और अहिच्छेत्र भी कहा जाता है और अंग्रेजी प्रभाव के कारण अहिच्छत्रा भी कहा जाने लगा है , भगवान पाश्वनाथ की तपस्वी परंपरा से जुड़ी पावन स्थली है, प्राचीन भारत के प्रमुख नगरों में एक ।
मेरे लिए व्यक्तिगत उपलब्धि यह रही कि अहिच्छत्र की चर्चा के बहाने मुझे अपने देश से, अपनी परम्परा से, अपने मूल्यों से थोड़े समय के लिए ही सही सार्वजनिक रूप से एकाकार होने का प्रवसर मिला। सामाजिक और सांस्कृतिक सतह पर वर्तमान जब गहन कोहरे से ढका हो, तो आगे चलने-चल सकने के लिए रास्ता खोजने में अतीत से मिल रहा प्रकाश बड़ा सहायक होता है। महोत्सव कहने को तो जैन-मूल्यों की चर्चा से भरा था, पर मुझ अ-जैन को लगा कि यहां चर्चा मेरे चाहने की हो रही है, मेरे मतलब की हो रही है। उसकी चर्चा हो रही है जो आज जरूरी तौर पर होनी चाहिए यानि अहिंसा को विशद चर्चा और मांस-भक्षण के मिथ्या मोह पर प्रहार की चर्चा। बातें अपने स्वाभिमान को हो रही थीं, अपने राष्ट्राभिमान की हो रही थीं। कहने का मतलब यह है कि उत्सव के उदघाटन का अवसर ऐसा बन गया था कि वह भारत के और भारतीयता के गौरव-स्मरण का अवसर अनायास बन गया था। बात पांचाल शोध संस्थान से सम्बद्ध श्री भंवर लाल नाहटा या श्री कृष्ण चन्द्र वाजपेयी की उपस्थिति भर को नहीं है, मेरी बात है उड़ीसा के राज्यपाल श्री विशम्भर नाथ पांडेय के विद्वतांपूर्ण उद्बोधन की। पर श्री पाण्डेय की बातों के बारे में बात करने से पहले एक जरूरी बात यह भी कि इस महोत्सव-अवसर का एक निजी आह्लाद मेरे लिए यह भी रहा कि साहित्यकार डा० छोटे लाल शर्मा नागेन्द्र बाबू आनन्द कुमार जैन संस्थान द्वारा साहित्य के प्रति सेवाओं के लिए राज्यपाल महोदय के हाथों शाल ओढ़़ाकर सम्मानित किये गये ।
मैंने फोटो में कवि श्री अज्ञेय को देखा हुआ था। जब श्री विशंभर नाथ पाण्डेय को सभा स्थल पर मंच पर देखा तो सहसा श्री अज्ञय का चित्र आँखों में कौंध गया। कुछ स्थूल शरीर, छोटी घनी सफेद दाढ़ी । चश्मा उनके व्यक्तित्व की प्रौढता को द्विगुणित कर रहा था। अपने मद्धिम गति से कहे गये विद्वत्तापूर्ण भाषण में श्री पाण्डेय ने जनमानस को स्मरण दिलाया कि भारत में सांस्कृतिक एकता की एक गौरवशाली परम्परा रही है, और रामकृष्ण, बुद्ध-महावीर, पार्श्वनाथ की पवित्र भूमि यह भारत सब प्रकार से आध्यात्मिक उत्कृष्टता का प्रतिनिधित्व करती है।
अहिच्छत्र उस उत्तर पंचाल की राजधानी था, जो प्राचीन भारत के सोलह जनपदों में से कभी एक था। यह वही अहिच्छत्र था जो बुद्ध के समय में अत्यन्त समृद्ध समझा जाता था और प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा संस्मरणों में जिस नगर की भव्यता-समृद्धि का उल्लेख किया है। श्री पाण्डेय का मत था कि जैन धर्म का मूलाधार अहिंसा है, सत्य है, अपरिग्रह है। हिंसा को इस मत में किंचित भी स्थान नहीं है। प्राणी मात्र से प्रेम इसका दर्शन है। इन्हीं उदात्त मूल्यों को लेकर जैन धर्म शताब्दियों पूर्व ही अरब, अफ्रीका और सीरिया आदि देशों में पहुंच चुका था। इन देशों में जैन-प्रचारकों ने अनेक आश्रम स्थापित किये और जैन-शिक्षा का प्रचार किया।
श्री पाण्डेय का कथन था कि रोम के प्राचीन पुस्तकालयों में रखी पुस्तकों में जिस
प्राचीन “जिम्नोसोफिस्ट” विचार धारा का उल्लेख मिलता है। वह वस्तुतः जैन धर्म पर आधारित दर्शन का ही व्यापक स्वरूप है। जैन धर्म की शिक्षा ने अन्य धर्मो पर भी अहिंसावादी प्रभाव स्थापित किया था । इसे सप्रमाण बताते हुए विद्वान वक्ता ने मत व्यक्त किया कि जैन धर्म के प्रचार के कारण यहूदियों में पशु-वध बंद हुआ और इसाइयों में बपतिस्मा जो पहले रक्त से होता था उसे जल हाथ में लेकर किया जाने लगा। अपने गहन अध्ययन की छाप छोड़ते हुए उन्होंने कहा कि यह जैन धर्म का ही प्रभाव था जो अनेक राजकुमारों ने गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त राजसिंहासन को ठुकराकर धर्म – प्रचार का काम अपने हाथ में लेना अधिक श्रेष्ठ समझा। और यह भी कि अरब के कलंदर मुनियों पर जैन आचरण की शिक्षा का प्रभाव भी सहस्त्रों वर्ष पूर्व अंकित हो चुका था।
अपने अनुभव सम्प्रक्त जीवन से श्रोताओं को भाव-विभोर एवं मंत्रमुग्ध कर देने में कौशल-सम्पन्न श्री पान्डेय ने बीस वर्ष पूर्व की अपनी रूस यात्रा का संस्मरण सुनाते हुए बताया कि लेनिनग्राड संग्रहालय में दो दर्जन के करीब हस्तलिखित जैन धर्म-दर्शन की पुस्तकें उपलब्ध हैं, जो संभवतः सत्रहवीं शताब्दी में रूस जाने वाले कतिपय जैन व्यवसायियों ने तत्कालीन शासक ‘जार’ को भेंट की थीं। इतना ही नहीं ताशकंद संग्रहालय में तो अनेक जैन ग्रन्थों का तुर्की भाषा में अनुवाद मौजूद था। वहां मुझसे मांग यह की गई-श्री पांडेय ने बताया कि कृपया मूल ग्रन्थों को भी संग्रहालय में भेजें ताकि शोध कार्य आगे बढ़ाया जा सके।
श्री पान्डेय ने अपने गहन वैदेशिक अनुभवों के आधार पर मत व्यक्त किया कि विदेशों में शाकाहारी प्रवृति की ओर तीव्र झुकाव बढता जा रहा है। स्वीडेन की राजधानी स्टाकहोम में एक विश्वविद्यालय के प्रोफेसर से हुई अपनी वार्ता का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि पश्चिम भौतिक समृद्धि के बावजूद मानसिक दृष्टि से दरिद्र है क्योंकि वह अशान्त है। स्वीडेन में मांसाहार घट रहा है, वहां की जनता और बुद्धिजीवी अहिंसा और शान्ति के मूल्यों के महत्व को महसूस कर रहे हैं। खेद है कि भारत में मांसाहार वृत्ति को बल मिल रहा है। पीड़ा भरे शब्दों में श्री पांडेय उल्लेख करते हैं, भारत में अपनी एक रेल यात्रा का जिसमें एक जैन यात्री द्वारा मांसाहारी भोजन की मांग करना उन्हें विचलित कर देता है। अहिंसा का आदर्श हमें दैनिक जीवन में, खान-पान में तो अपनाना ही चाहिए। जैन बंधु मांसाहारी भोजन का परित्याग करें-श्री पाण्डेय प्राग्रह करते हैं।
शक्तिशाली परमाणु शस्त्रों के भंडार ने विश्व को संहार के कगार पर बिठा दिया है। ऐसे में महावीर, गांधी और बुद्ध के रास्ते से ही अहिंसा का प्रकाश संभव है। ऋषि सरीखे दीखने वाले श्री पांडेय को मैंने सुना, चितन-आचरण में गहरे पैठे उनके विचारों को जाना। काहे का जैन, और काहे का अ-जैन !
अन्तिम बात जो श्री पाण्डेय ने अपने भाषण में कही, वह खास मायने रखती है यानि यह कि शून्य में शून्य की चर्चा करके शून्य हो जाने से कुछ नहीं होगा। में तुम्हें शून्य नहीं बनाना चाहता। शून्य के आगे शून्य की भीड़ बढ़ाने से नतीजा सिवाय शून्य के कुछ नहीं निकलेगा। मैं चाहता हूं, उत्सव सार्थक हो । एक आदमी भी अहिंसा पर सच्चा संकल्प ले ,उपलब्धि यह है । एक भी सच्चा अहिंसक होगा तो नतीजा निकल सकता है। मुझे लगा, भाषा और शिल्प चाहे भिन्न हो पर भाव और आत्मा इनमें गाँधी की ही बोल रही है।
साहित्य और संस्कृति के चितेरे श्री रमेश कुमार जैन के पुरुषार्थ के बल पर सम्पन्न हुआ यह आयोजन, श्री प्रमोद कुमार जैन के कुशल संचालन के मध्य, रामपुर के लिए एक असाधारण उपलब्धि रहा।