रमेशराज की विरोधरस की मुक्तछंद कविताएँ—1.
-मुक्तछंद-
|| सुविधा-विष ||
कैसी बिडम्बना है
कि हम सभी अक्सर
व्यवस्था की आदमखोर तोंद पर
मुक्का मारने से पहले
उन सारी तनी हुई मुटिठ्यां को
कुचल देना चाहते हैं
जो कि क्रोध की मुद्रा में
अंधे कानून की आस्था पर
लाल झन्डे की तरह व्यक्त होती हैं।
यह सोचते हुए कि आन्दोलन
हर आदमखोर व्यवस्था को
और ज्यादा आदमखोर बनाता है।
और यह वह स्थिति है
जहां हर लाल निशान
किसी हरेपन में चुक जाता है।
व्यवस्था-परिवर्तन की सीने में भरी हुई
गर्म-गर्म बेचैनी
हमारे अन्दर किसी सांप की जीभ की तरह
बार-बार लपलपाती है।
लगातार–लगा–ता–र फैलता है
एक सुविधा विष!
मैं लोगों को समझता हूँ-
यार इस अधेरे के खिलाफ
तुम्हारी यह सारी की सारी
आन्दोलनात्मक कार्यवाहियों की
जलती हुई बत्तियां
अब बेकार साबित हो रही हैं
बजाय उजाले के और अधेरा बो रही हैं |
ऐसा करो इन चबाई हुई मुट्ठियों को
किसी डायनामाइट बना डालो ।
प्रजातंन्त्र जो अब
भ्रष्टाचार / लूटखसोट का
एक प्रतीक बन गया है
जो आदमी पर
अभावों की चमचमाती धूप में
किसी वृक्ष की तरह तनने के बजाय
संगीन-सा तन गया है
आओ इसका विरोध करें
कविता में आग भरें ।
-रमेशराज
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-मुक्तछंद-
।। सूर्योदय।।
आजकल मैं साफ देख रहा हूं
कि कुछ मौकापरस्त लोग
कुछ राजनैतिक चालबाज
गा रहे हैं / वंसतगीत।
जबकि हिन्दुस्तान की हर चीज
क्रोध को मुद्रा में है।
किसी सूखे जंगल-सा धधक रहा है पूरा देश
लोगों के दिमाग में नक्सलवाद के सुर्ख झंडे
गाड़ रहा है अप्रत्याशित भावों की उछालों से
तिलमिलाता हुआ गूंगा जुनून।
कुछ मूर्खों को जननायक का खिताब
दे दिया गया है।
तालियों की गड़गड़ाहट के बीच
जोरदार शब्दों में उठ रहा है
नये सर्योदय का उद्घोष
लोगों के दिलों को
आदमखोर भेडि़यों की तरह
सूंघ रही है यह व्यवस्था।
आजकल मैं साफ देख रहा हूं
कि एक किसानों का नेता
किसानों की बढ़ी हुई दाढ़ी
छील रहा है
गन्ने की जगह / उस्तरे से।
-रमेशराज
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-मुक्तछंद-
।। पहचानो।।
ये बात क्यों भूल जाते हो दोस्त
कि पहाड़ के सीने में
जब कोई ज्वालामुखी सुलगता है
तो उस पर जमी हुई सारी बर्फ
आग की व्याकरण पढ़ने लगती है।
ये बात क्यों भूल जाते हो दोस्त!
कि आन्दोलन के घूं-घूं कर जलते हुए जंगल,
पुलिस की चमचमाती हुई
वर्दियों को देखकर
लोगों के मन और ज्यादा सुलगने लगते हैं,
यहां तक कि गोली / लाठी / अश्रु गैस
सुलगते हुए आदमी के लिये
मिट्टी का तेल हो जाते हैं ।
हो सके तो
इस बढ़ती हुई आग के तेवर पहचानो दोस्त!
पहचानो कि उन्होंने आजादी के बाद
आदमी के दिमाग में मीठे-मीठे सपनों की बजाय
कांच का बुरादा भर दिया है।
पहचानो मेरे दोस्त! कि उन्होंने-
गरीबी / आजादी / रामराज्य के सारे के सारे नारे
आदमी की पीठ पर
जोंक की तरह चिपका दिये हैं।
पहचानो कि उन्होंने
वातानुकूलित सुविधा के नाम पर
आदमी को एक सड़ाध मेरी व्यवस्था दे डाली है।
-रमेशराज
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-मुक्तछंद-
।। विष कन्या।।
हर तरफ कोरे नारों की
एक काली आंधी उतर आयी है,
पेड़ों की तरह भड़भड़ाकर टूट रहे हैं
आदमी के घुने हुए दिमाग ।
आजकल
आदमी घावों पर नमक-सा बुरक रही है
प्रजातन्त्र के टुच्चे मुहावरों की गर्म-गर्म हवा।
एक खौफनाक मौसम लोगों के सीनों पर
आश्वासनों की रायफल दाग रहा है।
हर तरफ मुंह फैलाये बैठा है
एक सियासी खतरों का अजगर।
आजकल कुछ नैतिक विचार
अंधेरे का फायदा उठाते हुए
अफवाहों के वैश्यालयों में घुस गये हैं,
कुछ सम्भावनाएं उनका मनोरंजन कर रही हैं ।
कुछ गलतफहमियां उनके गले में बाहें डाल रही हैं।
आजकल लोगों के बीच
एक सुगंध की तरह
गुजर रही है बदबूदार प्रसंगों की
मवाद भरी सड़ांध।
आओ दोस्त!
इस आदमखोर मौसम के खिलाफ
लोगों की नपुंसक मुद्राओं में
आक्रोश और तनाव भरें
सहमे हुए सूरज को बाहर निकालें
कोरे नारों के खिलाफ मोर्चा सम्हालें।
-रमेशराज
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-मुक्तछंद-
।। क्या हो जाता है?।।
गली-गली लहूलुहान कुतिया की तरह
चीखता है सन्नाटा
आहत सीनों पर हथौड़े की तरह पड़ती है
रायफलधारी पुलिस के बूटों की ठप-ठप,
लोग भूल जाते हैं सारी गपशप
आदमी के अन्दर दुबका हुआ सम्प्रदाय
एक बाज की तरह पंख फैलाता है
पता नही आजकल
मेरे शहर को क्या हो जाता है?
जगह-जगह खरगोश की तरह
कुलाचें भरती हुई सफेद धूप
धीरे-धीरे एक दहशत-भरे माहौल में
तब्दील होने लगती है,
और खुशगवार चेहरों का रंग
पकड़ से परे हो जाता है
पता नहीं आजकल
मेरे शहर को क्या हो जाता है?
-रमेशराज
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-मुक्तछंद-
।। आज़ादी के बाद से।।
वे लगातार रफू कर रहे हैं / आज़ादी के बाद से
देश के हालात / संविधान के गिलाफ
गरीबी-महंगाई के फटे मेजपोश
जनमत की आस्तीनें / लोकतंत्र के जुराब।
नारों / आश्वासनों / पोस्टरों अखबारों की जंग लगी सुई से
सुई है कि और ज्यादा उधेड़ देती है / देश का भविष्य,
फिर भी वह लगातार रफू कर रहे हैं।
आज़ादी के बाद से
उन्हें प्यार है केवल तस्कर-सटोरियों की जमात से
लोग फिर भी सहमत है उनकी हर बात से।
फिलहाल वह बांट रहे हैं
धन्नासेठों में सुविधाएं
कुल मिलाकर पूंजीवाद की पोषक हैं
उनकी समाजवादी व्यवस्थाएं।
-रमेशराज
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-मुक्तछंद-
।। महामंत्र ।।
जब जब उन्होंने इस देश की जमीन को
प्रजातंत्र का नया सूरज दिया है
हर तरफ अधिकारों का अकाल पड़ गया है।
आदमी की सुविधाएं चाट गयी है तानाशाही
नवजात दूब-सा झुलस गया है देश।
जब-जब उन्होंने उछाला है गरीबी उन्मूलन का नारा
गरीबों के दिमाग में बन्दूक की तरह
तन गयी है मूल्यवृद्धि।
गुब्बारों से फूल गयी है सेठों की तोदें।
फटेहाल सुदामा की विवाइयों जैसा हो गया है देश।
जब जब उन्होंने
वंसत के सपने दिखलाये हैं
केवल राजपथ पर आया है वसंत।
सेठों के संडासों में फैल गयी है सुगन्ध।
इसके अलावा सड़े हुए मवाद-सा हो गया है पूरा देश।
आजकल वे बन्दूक-बारुद की बातें कर रहे हैं।
वे चीख रहे है लगातार-
युद्ध की तैयारियां कर रहा है पड़ोसी देश।
हम सब देख रहे हैं कि उनका खतरा
अब देश का खतरा होता जा रहा है।
यानी अब की बार उनका
एक और नया महामंत्र आ रहा है।
-रमेशराज
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-मुक्तछंद-
।। मेरे भाई।।
मेरे भाई जरा सावधान रहना
देश में एक जादूगरनी
अपना कमाल दिखा ला रही है,
अखबारों की सुर्खियों में उनका नाम।
वह आजकल वंसत गीत गा रही है।
जिन्हें वसंत की तलाश है
उन्हें उल्लू बना रही है।
उसके लिए
रेशमी ब्लाउज है / प्रजातंत्र
जिसे वह पहन रही है पिछले कई दशकों से |
पेटकोट की तरह
उसके लिए है समाजवाद
जिस पर
उसके मासिक धर्म के
छींटे है जगह-जगह
हो सकता है मेरी बात लगे गोली की तरह,
कर रही है गन्दा देश
आजकल वह किस तरह।
मेरे भाई ये बात
कमाल है तुम अब भी
हाथ पर हाथ रखे बैठे हो!
जबकि वह जादूगरनी
तुम्हारे मीठे सपनों, सुख के कबूतरों का
शिकार खेल रही है तुम्हारे भीतर
कमाल है तुम अब भी
सिर्फ फूल के बारे में बातें कर रहे हो
जबकि तुम्हारे अन्दर नागफनी लहलहा रही है।
मेरे भाई
इस नागफनी की तुम पीड़ा मत सहना
जरा सावधान रहना
राजधानी में एक जादूगरनी
अपना कमाल दिखा रही है।
वह अपनेआप को
‘सुव्यवस्था’ बतला रही है।
-रमेशराज
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-मुक्तछंद-
।। एक अजीब जंग ।।
आजकल लोगों पर
हर तरफ से हो रही है
खूनी शब्दों की बरसात,
एक खतरनाक मौसम में
बदल गया है पूरा परिवेश।
यहां तक कि
हमलावर सहनशीलता की
अहिंसक कारवाई से
आदमी के सारे रंग
इतने गड्ड-मड्ड हो गये हैं
कि जिदंगी के केनवेस पर
उभर कर आ रहा है
सिर्फ गाढ़ा लाल रंग।
उन्मादी मौसम छेड़ रहा है
आदमी के साथ
एक अजीब जंग।
मौसम जो सचिवालय है
मौसम जो पूंजीपतियों का गोदाम है
अपनी पूरी ताकत के साथ
पूरे देश की जमीन पर
फूल-फल रहा है
भूखे की पसलियों पर
चाकू-सा उछल रहा है।
-रमेशराज
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-मुक्तछंद-
।। भाषणी बहाव में ।।
यहां अक्सर ऐसा ही होता है बन्धु
हर चेहरे पर एक
समाजवादी चेहरा टांक दिया जाता है
हर किसी की आखों में
छलछलाते आंसुओं के बावजूद
मुस्कान उग आती है।
आदमी आदमखोरों की
सत्ता के पक्ष में हो जाता है
आग लगे या डकैती पड़े
बाढ़ आगे या सूखा छाये
बलात्कार हों या मुखमरी के शिकार…
आदमी है कि बस
वंसत गीत गाता है,
ठहाके लगाता है।
यहां अक्सर ऐसा ही होता है बन्धु
हर पांच साल बाद हुआ मतदान
लोगों के दिलों में
चुनाव का एक डंक तोड़ जाता है
आदमी को सिसकता छोड़ जाता है।
रहनुमा भ्रष्टाचार के खिलाफ
आवाज़ उठाते हैं
लेकिन गद्दी मिलते ही
भ्रष्टाचार के बाप हो जाते हैं।
यहां अक्सर ऐसा ही हो ता है बन्धु
बात गरीबी मिटाने की होती है
पर मिट जाता है गरीब
वाह रे मेरे हिंदुस्तान के नसीब!
न खाने को रोटी, न तन पर लंगोटी
पर लोग है कि
सब कुछ सहे चले जाते हैं
टुच्ची घोषणाओं के– कोरी सुविधाओं में
भाषणी बहाव में
बहे चले जाते हैं ।
-रमेशराज
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-मुक्तछंद-
।। गलत इरादों के विरोध में।।
मेरे दोस्त अब देश में
गुलाब के फूल की सुगन्ध
और आदमी की तलाश
बिलकुल बेमानी है।
आदमी या तो
भेडि़यों की जमात में शरीक है
या फिर एक चील की चोंच में
आहत चिडि़या का बच्चा।
या फिर
इस आदमखोर व्यवस्था की
छुरी के नीचे
रखी हुई बकरे की मयातुर गर्दन।
यहां वंसत और खुशबू के नाम पर
हर तरफ फैली है सड़ांध
मवाद भरा फोड़ा हो गया है
हर गुलाब का फूल : पूरा देश।
हम अभी आज़ादी और हक़ की
पहली लड़ाई भी फतह नहीं कर पाये हैं
मगर माचिस के
एक सीले हुए रीते खोल-सी हो गयी हैं
विस्फोटक मुठ्टियां।
जलकर राख हो गये हैं
सारे के सारे क्रान्तिकारी शब्द।
हर आदमी अब
जिदंगी की लड़ाई लड़ते
इतना थक चुका है
इतना घायल हो चुका है
इतना टूट चुका है
कि सांसों को
तेजाब की तरह काटती है
युद्ध-क्षेत्र की जमीन।
उसकी कुहनियों और हथेलियों में
जखमों की खाइयां
खोदती जा रही है पराजय।
आदमी अब न चल सकता है
न खिसक सकता है
न जुल्म के खिलाफ
बंदूक उठा सकता है।
मेरे दोस्त !
अब बहुत जरूरी है कि-
चूर-चूर हो रहे
फौलादी शब्दों को
गलत इरादों के विरोध में
आदमी के दिमाग़ में
आग-सा बोया जाए।
-रमेशराज
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Rameshraj, 15/109, Isanagar, Aligarh-202001