रमेशराज की माँ विषयक मुक्तछंद कविताएँ
-मुक्तछंद-
।। बच्चा मांगता है रोटी।।
बच्चा मांगता है रोटी
मां चूमती है गाल |
गाल चूमना रोटी नही हो सकता,
बच्चा मागता है रोटी।
मां नमक-सी पसीजती है
बच्चे की जिद पर खीजती है।
मां का खीझना-नमक-सा पसीजना
रोटी नहीं हो सकता
बच्चा मागता है रोटी।
मां के दिमाग में
एक विचारों का चूल्हा जल रहा है
मां उस चूल्हे पर
सिंक रही है लगातार।
लगातार सिंकना
यानी जली हुई रोटी हो जाता
शांत नहीं करता बच्चे भूख
बच्चा मांगता है रोटी।
मां बजाती है झुनझुना
दरवाजे की सांकल
फूल का बेला।
बच्चा फिर भी चुप नहीं होता
मां रोती है लगातार
मां का लगातार रोना
रोटी नहीं हो सकता
बच्चा मांगता है रोटी।
बच्चे के अन्दर
अम्ल हो जाती है भूख
अन्दर ही अन्दर
कटती हैं आंत
बच्चा चीखता है लगातार
माँ परियों की कहानियाँ सुनाती है
लोरियां गाती है
रोते हुए बच्चे को हंसाती है |
माँ परियों की कहानियाँ सुनाना
लोरियां गाना
रोते हुए बच्चे को हंसाना
रोटी नहीं हो सकता
बच्चा मांगता है रोटी |
माँ रोटी हो जाना चाहती है
बच्चे के मुलायम हाथों के बीच |
माँ बच्चे की आँतों में फ़ैल जाना चाहती है
रोटी की लुगदी की तरह |
बच्चा मांगता है रोटी |
बच्चे की भूख
अब माँ की भूख है
बच्चा हो गयी है माँ |
बच्चा हो गयी है माँ
बच्चा माँ नहीं हो सकता
बच्चा मांगता है रोटी |
-रमेशराज
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-मुक्तछंद-
।। कागज के थैले और वह।।
उसके सपनों में
कागज के कबूतर उतर आये हैं
वह उनके साथ उड़ती है सात समुन्दर पार
फूलों की घाटी तक / बर्फ लदे पहाड़ों पर
वह उतरती है एक सुख की नदी में
और उसमें नहाती है उन कबूतरों के साथ।
उसके लिए अब जीवन-सदर्भ
केवल कागज के थैले हैं।
वह अपने आपको
उन पर लेई-सा चिपका रही है।
वह पिछले कई वर्षो से कागज के थैले वना रही है।
वह मानती है कि उसके लिए
केंसर से पीडि़त पति का प्यार
नाक सुड़कते बच्चों की ममता
सिर्फ कागज थैले हैं
जिन्हें वह शाम को बाजारों में
पंसरियों, हलवाइयों की दुकान पर बेच आती है
बदले में ले आती है
कुछ केंसर की दवाएं
नाक सुडकते बच्चों को रोटियां
कुछ और जीने के क्षण।
कभी कभी उसे लगता है
जब वह थैले बनाती है
तो उसके सामने
अखबारों की रद्दी नहीं होती
बल्कि होते हैं लाइन से पसरे हुए
बच्चों के भूखे पेट।
वह उन्हें कई पर्तों में मोड़ती हुई
उन पर लेई लगाती हुई
कागज के थैलों में तब्दील कर देती है।
यहां तक कि वह भी शाम होते-होते
एक कागज का थैला हो जाती है / थैलों के बीच।
कभी-कभी उसे लगता है-
वह लाला की दुकान पर थैले नहीं बेचती,
वह बेचती है- बच्चों की भूख,
अपने चेहरे की झुर्रिया / पति का लुंज शरीर।
वैसे वह यह भी मानती है कि-
जब वह थैले बनाती है
तो वसंत बुनती है।
उसके सपनों में कागज के कबूतर उतर आते हैं,
जिनके साथ वह जाती है / सात समुन्दर पार
फूलों की घाटी तक / बर्फ लदे पहाडों पर /
हरे-भरे मैदानों तक।
वह उतरती है एक सुख की नदी में
और उसमें नहाती है उन कबूतरों के साथ
-रमेशराज
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-मुक्तछंद-
।। मां बनती हुई औरत ।।
पहले वह औरत थी / सिर्फ औरत
अब वह लगातार मां बन रही है।
मां बनना / यानी अपने भीतर
सूरजमुखी का एक खेत उगाना,
उसे अच्छा लगता है
अब वसंत के सपनों में खो जाना।
वह महसूस करती है
अपने अन्दर भीनी-भीनी सरसों गंध।
मां बनती औरत आम के बौर-सी महक रही है
अमिया-सी फूट रही है।
कोयल-सी कूक रही है।
वह लगातार मां बन रही है
उसके अन्दर जमी बर्फ पिघल रही है लगातार।
वह हिम नहीं रही / वह झरना है
उसे अब नदी होकर मैदान में उतरना है।
मां बनती हुई औरत सींचेगी एक अनभीगा खेत
वह नदी होकर उस खेत से गुजर रही है।
वह लगातार मां बन रही है।
उसकी निगाह अब अनायास चली जाती है
लिपिस्टिक बिंदी मेंहदी के बजाय
दूध क डब्बों पर / बिस्कुट के पैकेटों पर
गैस के गुब्बारों पर।
मां बनती औरत अपने लिये
साड़ी या ब्लाउजपीस नहीं खरीदती है
वह खरीदती है-छोटे-छोटे मोजे
मखमली बिछोने।
मां बनती औरत बड़ी बेसब्री से
आने बाले नन्हे मेहमान की
प्रतीक्षा कर रही है
वह लगातार मां बन रही है।
मां बनना यानी अपने अन्दर
एक सूरजमुखी का खेत उगाना
उसे अच्छा लगता है
अब वंसत के सपनों से खो जाना।
-रमेशराज
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-मुक्तछंद-
।। मां बच्चे के साथ ।।
कुछ गुनगुनाते हुए
बच्चे के मुलायम
बाल सहलाते हुए
मां एक लोरी हो जाती है
लोरी गाते हुए।
बच्चे के साथ
आंख मिचौली का
खेल खेलते हुए
नाच नाचते हुए
बच्चे के मन को
किसी लोकगीत-सा
हर पल बांचते हुए
बच्चे के साथ खेलते हुए
मां भी
बच्चा हो जाती है।
वह महसूसती है
बच्चे के भीतर
खिलते हुए गुलाब
महकते हुए ख्वाब।
मां किसी चिडि़या-सी
बार-बार चहचहाती है
वह बच्चे के सामने
चिडि़या हो जाती है।
मोम-से पिघलते हैं
मां के जज्बात
बच्चे के सुखद
स्पर्शो के साथ ।
-रमेशराज
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-मुक्तछंद-
।। पूरी शिद्दत के साथ ।।
मां की आखें ताकती हैं पूरी शिद्दत के साथ
पट्टी पर खडि़या से
अ-आ–ई-1-2-3–लिखते हुए बच्च को।
मां का रोम-रोम गुदगुदाता है / बच्चे का भविष्य।
मां डूब जाती है इन्द्रधनुषी सपनों में
कुछ कल्पनाएं करती है मां
लगातार वसंत बुनती है मां
मां के दिमाग में उतरती है
एक चमचमाती एम्बेस्डर कार
जिसमें बैठी होती है मां।
उसका गोबर लिपा घर, चिंदीदार धोती
बदबू-भरा ब्लाऊज, टूटा हुआ पलंग…
एक-एक कर पीछे छूटते जाते हैं लगातार…..
अब मां पहने है नायलोन की साड़ी
ढेर सारे आभूषण।
उसका बेटा चला रहा है कार
दिखा रहा है वह भव्य इमारत
जहां वह एक कम्पनी का मैनेजर है
सब ठोक रहे हैं उसे सलाम।
खुश होती है मां… मुस्काती है मां
उसके दिमाग में उतरती है एक साफ-सुथरी
बाग-बगीचों वाली एक कोठी…
सोफा सैट, टी.बी., कूलर
फ्रिज, रेडियो, हीटर के साथ
मां डूबती है और भी कल्पनाओं में….
उसका बेटा लाया है चांद-सी बहू
शरमीली नटखट शोख…….
खुश होती है मां….मुस्कराती है मां
उसका रोम-रोम गुदगुदाता है
बच्चे का भविष्य।
बच्चा लिख रहा है
अ–आ–ई-इ- 1—2—3—
मां की आखें ताकती हैं
बच्चे की पूरी शिद्दत के साथ
मां के दिमाग में उतरता है बच्चा
जवान होकर।
-रमेशराज
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-२०२००१