रमेशराज की कहमुकरी संरचना में 10 ग़ज़लें
कहमुकरी संरचना में ग़ज़ल —1
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प्यारा उसे लगे अँधियार, रात-रात भर करे पुकार
मत करना सखि री संदेह, पिया नहीं, संकेत सियार।
घायल है तन, मन बेचैन, घाव रिसें औ’ बहते नैन
झेल न पाऊँ उसका वार, क्या सखि सैंया, नहीं कटार।
जिसकी खुशबू मन को भाय, अधरों पर मुस्कान सुहाय
सखि शंका मत कर बेकार, पिया नहीं, फूलों का हार।
जो छू लूँ तो काँपे गात, तन को मन को दे आघात
क्या सखि री तेरे भरतार? ना ना री बिजली के तार।
क्या दूँ री मैं मन की बोल, रसना में रस घुले अमोल
मिला तुझे क्या उनका प्यार? ना ना री सखि आम अचार।
+रमेशराज
कहमुकरी संरचना में ग़ज़ल —2.
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चीख निकलती उसको देख, चाहे दिन हो या अंधेर
मार झपट्टा लेता गेर, क्या सखि साजन? ना सखि शेर।
उसने छोड़ा तुरत वियोग, मन में उसके जागा भोग
क्या सखि साजन? ना सखि आज, अंधे के कर लगी बटेर।
ऐसे उसने डाला रंग, सोने जैसे चमके अंग
क्या ये सब साजन के संग? ना सखि आयी धूप मुँडेर।
भीगी चूनर-भीगा गात, चमके बिजुरी जी घबरात
क्या सँग साजन? ना री! मेघ, आज गया जल खूब उकेर।
आकर दो दर्शन भरतार, कब से तुमको रही पुकार
सखी रही तू साजन टेर? नहीं रही प्रभु-माला फेर।
+रमेशराज
कहमुकरी संरचना में ग़ज़ल —3.
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उसने मुझे उढ़ा दी खोर, मैं सखि मचा न पायी शोर
तुरत कलाई दई मरोर, क्या सखि साजन? ना सखि चोर।
क्षण-भर मिलता चैन न बाय, पल-पल केवल मिलन सुहाय
घूमे पागल-सा हर ओर, क्या सखि साजन? नहीं चकोर।
सावन में भी हँसी न नाच, अपने मन का कहे न साँच
बस बोले अँखियन की कोर, का सखि साजन? ना सखि मोर।
तन में-मन में डाले बंध, रचे विवशता के ही छंद
एक उदासी में दे बोर, क्या सखि साजन? ना सखि डोर।
सुख दे घनी रात के बाद, होता खतम तुरत अवसाद
उसका नूर दिखे हर छोर, क्या सखि साजन? ना सखि भोर।
+रमेशराज
कहमुकरी संरचना में ग़ज़ल —4.
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लगता जैसे खींचे प्रान, ऐसे मारे चुन-चुन वान
क्या सखि कोई पिया समान, ना ना सखि आँधी का ध्यान।
क्या करि आयी बोले लोग, कोई कहता मोकूँ रोग
क्या पति की रति आयी भोग? ना सखि मैंने खाया पान।
ये नैना देखत रह जायँ, वे तो मन्द-मन्द मुस्कायँ
क्या सखि पिया सुगंध बसायँ? ना ना फूलों की मुस्कान।
बरसें घन तो मन में तान, तन झूमे नित गाये गान
और जान में आवै जान, का सखि साजन? ना सखि धान।
अति चौड़ा है उसका वक्ष, बहुत सबल है उसका पक्ष
वह स्थिरता में भी दक्ष, का सखि साजन? ना चट्टान।
+रमेशराज
कहमुकरी संरचना में ग़ज़ल —5
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मेरे ये सावन में हाल, ऊँची-ऊँची लऊँ उछाल
दिन-भर आये अति आनंद, क्या सँग साजन? ना सखि डाल।
पटकूँ पत्थर पर सर आज, नैन हुए तर, मन डर आज
मैं मुरझायी तपकर आज, क्या बिन साजन? ना सखि जाल।
मन अब दुःखदर्दों से चूर, बसी उदासी मन भरपूर
क्या सखि साजन से तू दूर? ना सखि खोयी मोती-माल।
हाल हुआ बेहद बेहाल, सम्हल-सम्हल मैं गिरी निढाल
पिया विरह का सखी कमाल? ना सखि कल आया भूचाल।
जल बिन तड़पै अब तो मीन, क्या बतलाऊँ हालत दीन
क्या साजन बिन ऐसा हाल? ना सखि देखे सूखे ताल।
+रमेशराज
कहमुकरी संरचना में ग़ज़ल —6.
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सच कहती मैं आखिरकार, मन में उमड़ी बड़ी उमंग
क्या मिल गया पिया का प्यार? ना सखि मैंने पीली भंग।
थिरकन लागे मेरे पाँव और बढ़ी पायल-झंकार
क्या सखि जुड़े पिया से तार? ना सखि सिर्फ सुनी थी चंग।
सुन-सुन बोल गयी मैं रीझ, तन क्या मन भी गया पसीज
क्या सखि पिया मिले इस बार? ना ना री सखि बजी मृदंग।
जब आयी बैरिन बरसात, दी उसने दुःख की सौगात
क्या सखि पिया संग तकरार? ना सखि लोहे देखी जंग।
नभ को छूकर यूँ मन जोश, ‘कहाँ आज मैं’ रहा न होश
हुआ पिया सँग क्या अभिसार? ना सखि मैं लखि रही पतंग।
+रमेशराज
कहमुकरी संरचना में ग़ज़ल —7.
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जैसे तैसे रातें काट, रोज भोर की जोहूँ बाट
क्या छेड़ें तेरे सम्राट? ना सखि सोऊँ मैं बिन खाट।
देख उन्हें मैं दी मुस्काय, चैन पड़ा अपने घर लाय
मिले सजन मत जइयो नाट? ना सखि मोती देखे हाट।
भला इसी में रह लूँ दूर, पल में तन-मन करते चूर
क्या साजन हैं क्रूर कुटाट? ना ना सखि चाकी के पाट।
सखि मैं गयी स्वयं को भूल, ऐसा देखा सुन्दर फूल
क्या साजन है बड़े विराट? ना ना सखि नदिया के घाट।
कभी चाँदनी-सा खिल जाय, कभी मेघ बन मन को भाय
मिलन हुआ सखि नदिया-घाट? ना सखि नभ-लखि रूप विराट।
+रमेशराज
कहमुकरी संरचना में ग़ज़ल —8.
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भला बढ़ाया मैंने मेल, लुका-छुपी का कैसा खेल
घावों पै नित मलती तेल, क्या संग साजन? नहीं पतेल।
घने ताप में थी खामोश, आया सावन दूना जोश
क्या सखि वहीं बढ़ाया मेल? ना सखि मेरे घर में बेल।
आये इत तो धुक-धुक होय, नींद जाय अँखियन से खोय
दे मन में झट शोर उड़ेल, क्या सखि साजन? ना सखि रेल।
मिले न काहू ऐसा संग, बार-बार जो फाटें अंग
क्या सखि ये साजन के खेल? ना सखि बेरी के सँग केल।
मैं चौंकी सखि री तत्काल, मैंने लीना घूँघट डाल
क्या साजन की चली गुलेल? वे वर ना, सखि मिले बड़ेल।
+रमेशराज
कहमुकरी संरचना में ग़ज़ल —9.
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बात बताऊँ आये लाज, गजब भयौ सँग मेरे आज
मेरी चूनर भागा छीन, क्या सखि साजन? ना सखि बाज।
सखि मैं गेरी पकरि धडाम, परौ तुरत ये नीला चाम
निकली मुँह से हाये राम, सैंया? नहीं गिरी थी गाज।
कहाँ चैन से सोबन देतु, पल-पल इन प्रानों को लेतु,
बोवै काँटे मेरे हेतु, क्या सखि साजन? नहीं समाज।
बिन झूला के खूब झुलाय, गहरे जल में झट लै जाय
खुद भी हिचकोले-से खाय, क्या सखि साजन? नहीं जहाज।
+रमेशराज
कहमुकरी संरचना में ग़ज़ल —10.
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पहले मोकूँ चूम ललाम, फिर लोटत डोल्यौ वो पाम
गिरौ पेड़ से सुन सखि फूल, चल झूठी पति होंगे शाम।
चमकी चपला नभ के बीच, तुरत गयी मैं आँखें मींच
ली मैंने झट बल्ली थाम, सखि ना छुपा सजन कौ नाम।
पीत वसन में सुन्दर गात, रस दे मीठा अधर लगात
महँक उठे मन-बदन तमाम, का सखि साजन? ना सखि आम।
भरी दुपहरी पहुँची बाम, चाट गयी तन-मन को घाम
पिया मिले होंगे गुलफाम? क्या बोले सखि हाये राम!
अगर मिले तो चित्त सुहाय, पास न हो तो मन मुरझाय
रोज बनाये बिगड़े काम, का सखि साजन? ना सखि दाम।
+रमेशराज
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, निकट-थाना सासनीगेट, अलीगढ़-202001