रफू की दुकान
अनिमेष कई दिनों से अपनी अजीज कमीज पर रफू करवाने के बारे में सोच रहा था पर समय का अभाव था।रोज जब भी अलमारी खोलता उसकी नजर उस नई फैशन की सर्ट पर पड़ती ।सोचता ,जाऊँगा तो शहर में दुकान ढूंढनी पड़ेगी ।उसे याद है जब रेडियो सुधरवाने निकला था तो शहर का चप्पा-चम्पा छान डाला,मुश्किल से बजरिया की सकरी कुलिया में एक अकेली दुकान मिली थी।वहाँ भी एक घंटे बैठक लगी;रेडियो वाले को देखकर सन सत्तर की फिल्में याद आ गईं।पैसे उम्मीद से कम ही लिए थे साथ ही एक अलग अनुभव और दर्शन से रूबरू हुआ।
अब शहर में कोई छोटे-मोटे काम नहीं लेता ।सब बड़ा काम चाहते हैं । सब पैसा कामना चाहते हैं ।आजकल
मोहम्मद भ ाईजान की तरह मस्त गीत गाते हुए कोई कपड़े नहीं सिलता ।
आज शाम अनिमेष निकल ही पड़ा ;ढूँढते-ढूँढते एक अंदर कोई घुसी हुई दुकान पर पहुँचा(जहाँ उम्मीद थी कि रफू का काम हो जाएगा )।अधेड़ उम्र का एक आदमी मैले कपड़ों में मशीन चला रहा था।अनिमेष ने सर्ट दी,और कहा रफू हो जायेगी ।हाँ बनाता हूँ जुगाड़ सर्ट तो महँगी लगती है!उसने अपने चश्मे को ठीक किया और फिर काम शुरू किया ।बड़ी ही कारीगरी से सर्ट को एक नया रूप दे दिया ।पैसे भी उम्मीद से बहुत कम लिए!चेहरे पर कोई अंतर नहीं फिर दूसरे काम में लग गया।
आदमी अपने फटे कपड़ों को नया रूप दे सकता है—उसे जरा मशक्कत करनी पड़ेगी उस दुकान को ढूँढने की जहाँ कारीगरी करने वाला कोई सरल सहज ,संतोष से परिपूर्ण तथा भीड़ और बाजार से अलग-थलग बैठा है।
मुकेश कुमार बड़गैयाँ”कृष्णधर द्विवेदी”