रदीफों की वफा हो हासिलों से—- गज़ल
रदीफों की वफा हो हासिलों से
गज़ल का नूर होता काफिओं से
वही जाते सलामत मंजिलों तक
जो करते प्यार हैं अपने परों से
न बच्चों को जरा तहज़ीब दें वो
बँधे ममता की प्यारी रस्सिओं से
रही खुशफहमियां कुछ हुस्न को थी
वो हैरां आइने की चुप्पिओं से
न छेडो इन फफोलों को जरा भी
कई जज़्बात डरते उँगलिओं से
हिमाकत और सिआसत सांसदों की
कलंक लगा वतन पर जाहिलों से
किनारे ढूँढ कर हारे नदी के
वफा मिलती कहां है कश्तिओं से
उठाये कौन गिरते अदमी को
कहां है खून अब वो धमनिओं मे
कही होती कभी निर्मल से मुश्किल
बचा लेती तुम्हें उन आफतों से