रणभूमि का सारथी
रणभूमि में आपके साथ हैं।
रणभूमि में लक्ष्यों का
संधान करते हुए
आपने पूछा था एक दिन कि,
शस्त्रों को छोड़ कर
क्यों चुन लेते हो चुप्पी,
अंजुरी में पुष्प भर कर
क्यों चल देते हो निहत्थे।
अपने रक्तिम चेहरे से
लटों को हटाते हुए
आपने ही पूछा था-
इतनी देर कहां थे आप?
तो सुनिये,
आपके विजय रथ का
सारथी हूं मैं,
कंहा जा सकता हूं
छोड़ कर आपको,
अभी इस रणभूमि पर
उड़ती सफेद चिड़िया के
पंखों को गिन रहा हूं।
दूर नहीं हूं आप से
उस चिड़िया की
चहचहाहट में हूं,
आपके कानों में गूंज रहा हूं।
तमाम चुनौतियों में से
किसी एक को अभी
चित करते हुए
आपकी उदास आंखों में
ये जो आई है न चमक,
मैं वहीं तो हूं ।
निशस्त्र होकर भी
आपकी ढाल में हूं,
इस रणभूमि में हूं
आपका कवच।
आपके विजय रथ
के पहिए में भी मैं ही हूं,
घूम रहा हूं निरंतर
हर क्षण आपके साथ।
रात्रि में जब दुश्मन सेना बनाती हो
युद्ध की योजनाएं,
उसकी रूपरेखा में मैं हूं।
आपके लिए रचे चक्रव्यूह के भीतर हूं,
कभी ओझल हुआ नहीं
आपके मन की आंखों से।
तलवार पर चमकते लहू पर
उगता हूं पुष्प बन कर,
इसकी सुगंध में भी मैं हूं।
काल के हर खंड में
घटित हूं और अघटित भी,
युद्धभूमि में उठती
धूल के हर कण में हूं।
विजयरथ पर सवार
मेरे पीछे खडे हैं आप,
कैसे कहूं मैं निहत्था हूं?
आपके धनुष की प्रत्यंचा
पर मैं ही तो बैठा हूं,
तीर की नोक को
दे रहा हूं तीक्ष्णता।
मैं कहीं भी नहीं हूं
फिर भी यहीं हूं,
आपकी विजयगाथा को
कर रहा हूं लिपिबद्ध।
आगे बढ़ो….आगे बढ़ो,
अपने शत्रुओं के वार को
कर दो विफल।
आपके हर घात में मैं हूं।
युद्धरत हो आप,
तो मैं भी हूं उन्मत्त
इसी रणभूमि में।
दूर नहीं हूं आपसे।