रज्जो दादी
रज्जो दादी के मुँह में भले ही कोई भी दाँत न हो लेकिन उनके चेहरे की तेजस्विता उनके कमाए गए अनुभव की बानगी थी। बात-बात पर उनका संस्कारों की दुहाई देने के स्वभाव ने उन्हें कब संस्कारी दादी की उपमा दिला दी , पता ही न चला। मम्मी तो उनकी टोका-टोकी के बदले अपनी मुस्कान उछाल देती थी, लेकिन पापा तो कभी-कभी चिड़ ही जाते थे।
“मोनू (पापा का बचपन का नाम) चाय पीने से पहले हाथ धो कर आओ
अरे! बाहर से आकर सीधा रसोई में क्यूँ घुस गए! चलो बाहर निकलो।
और भी न जाने कितने ज्ञान के भंडारे रज्जो दादी के प्रतिदिन क्या प्रत्येक समय लगते रहते थे।
मैं और बिन्नी , मेरी बडी बहन जो मुझसे तीन वर्ष बडी थी, दादी के आस-पास ही मंडराते रहते थे। इसका भी एक कारण था। हम दादी को जब बताते कि आज स्कूल से आते हुए हमने रास्ते में पडे केले के छिलके को डस्टबिन में डाल दिया या आज हमने एक अंधे आदमी को सड़क पार कराई ऐसे-ऐसे न जाने कितने कार्य(कुछ तो उनमें फर्जी भी होते थे) गिनाते तो दादी खुश होकर हमें पैसे देती थी या कुछ खाने पीने की चीजें दे देती थी।
इसी तरह समय निकलता रहा। मैं कक्षा नो में और दीदी हाईस्कूल में आ गई थी। अब दादी थोडा झुककर चलने लगी थी। उनकी रीढ़ की हड्डी में कुछ समस्या आ गई थी। लेकिन रज्जो दादी के संस्कारी वचन तो उन्हें मानो वरदान में मिले थे। वो समय-समय पर उन्हें बाँचती ही रहती थी। पापा दादी से बचते रहते थे लेकिन जब सामना होता तो खीज जाते। दादी अब भी उन्हें छोटे बच्चे की तरह डाँट देती थी।
एक दिन की बात है। बिन्नी अपने कमरे में थी और हमारे पडोस के राजेश अंकल का लड़का राघव भी उसके कमरे में ही था। मैं दादी के पास बैठा था। अचानक दादी उठी और बिन्नी के कमरे में चली गई। मैं भी दादी के पीछे -पीछे चला गया। दादी को देखते ही राघव (जो कि बिन्नी के काफी करीब बैठा था)हड़बड़ाकर उठा और बाहर भागता चला गया। दादी को यह बात नागवार गुजरी। उन्होंने बिन्नी को कुछ धमकाया , जो कि मेरी समझ में नहीं आया। मम्मी भागकर आई. . . . पूछा तो दादी ने कहा मोनू को आने दे और आँखें तरेरकर अपने कमरे में चली गई। मैंने बिन्नी को देखा. . . वह चोर की तरह मुँह झुकाए खड़ी थी।
शाम को पापा आए। रज्जो दादी ने पापा को अपने पास बुलाया और कहने लगी-“मोनू थोडा़ ध्यान घर का भी रख, और बहू तू भी सुन, अकेली लड़कियों के पास इस तरह लड़को का बैठना अच्छा नहीं होता. . . . . ”
दादी आगे कुछ कहती पापा गुस्से में बोल पडे़—“अम्मा , ये क्या बचकानी बात कर रही हो! आजकल लड़के लड़की एक साथ पढ़ते हैं खेलते हैं उठते हैं बैठते हैं लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि उनकी सोच हमेशा वही रहे।”
“लेकिन मोनू, वो अगर गलत नहीं थे तो राजेश का लड़का इस तरह घबराकर क्यूँ भागा! जहाँ गहराई होती है पानी वहीं मरता है।”
पापा अब बरस पडे़-“अम्मा शर्म करो, छोटे छोटे बच्चों के बारे में ऐसा सोचते हुए।”
पापा को गुस्सा आ रहा था। लेकिन रज्जो दादी पापा को समझाते हुए बोली-” बेटा, मेरी बात समझ, लड़कियाँ पतंग होती हैं, उनकी डोर को खींचकर रखना पड़ता है. . . . . ज्यादा ढील दी तो वे हाथ से निकल जाती हैं।”
“बस करो अम्मा” पापा फट पडे़. . . अपनी ही पोती पर इल्ज़ाम लगाते हुए भी आपको शर्म नहीं आती।” मम्मी बीच में कुछ बोलना चाहती थी लेकिन पापा को गुस्से में देखते हुए उन्होंने कुछ भी बोलना उचित न समझा।
और पापा ने अबकी बार रज्जो दादी को इतना डाँटा कि अबकी बार वे सहम ही गईं। उस दिन के बाद से दादी ने कभी भी किसी को गलत बात पर भी नहीं टोका। धीरे धीरे समय बीतता रहा। एक दिन रज्जो दादी हमें छोड़कर इस संसार से विदा हो गई। औरों का तो पता नहीं लेकिन काफी दिनों तक मुझे रज्जो दादी काफी याद आई।
अब मैंने हाईस्कूल पास कर लिया था और बिन्नी भी इंटर पास कर विश्वविद्यालय में पहुँच चुकी थी। राजेश अंकल के लड़के राघव का आना जाना हमारे यहाँ बरकरार था। लेकिन मैं उसे कभी भी पसंद नहीं करता था। राजेश अंकल का कारोबार काफी अच्छा खासा था। और मेरे पापा उनकी ही एक कंपनी में क्लर्क थे। हो सकता है पापा का राघव पर इतना विश्वास इसी कारण से हो।
एक दिन शाम के आठ बज चुके थे। पापा भी ओफिस से आ चुके थे लेकिन बिन्नी अभी तक नहीं आई थी।
“बिन्नी नहीं आई! ” पापा ने मम्मी से पूछा।
“शाम की क्लास तो दीदी की पाँच बजे ही खत्म हो जाती है।” मैंने कहा।
“हाँ अब तक तो उसे आ जाना चाहिए था।” मम्मी ने भी कहा।
“अरे! रास्ते में उसकी कोई सहेली मिल गई होगी।” पापा बोले और मुझसे कहा- ” खाना खाकर बिन्नी को देखने चले जाना।”
मैंने खाना खाया और दिमाग में उमडे़ बहुत से सवालों को लेकर बाहर निकल गया। राघव का व्यवहार मुझे अच्छा नहीं लगता था। मैंने अपने दोस्तों से उसके बारे में काफी कुछ गलत सुना था। शराब जुएँ के साथ-साथ वह लड़कियों को भी धोखा देता था। यह ख्याल आते ही मेरा मन परेशान हो उठा और मैं पास ही की बिन्नी की एक सहेली निशा के घर जाकर उससे बिन्नी के बारे में पूछा।
निशा का चेहरा साफ साफ बता रहा था कि की वो मुझसे कुछ छिपा रही है। मैंने जब उस पर दबाव बनाया तो उसने बताया कि आज बिन्नी कुछ परेशान सी थी। और अभी अभी वह राघव के साथ नेहरू पार्क में गई है। नेहरू पार्क? सुनकर मैं सन्न रह गया। नौ बजने वाले थे और रात के इस समय वह राघव के साथ पार्क में क्यों गई है?
मुझे गुस्सा आ रहा था।मैं भागा हुआ पार्क में पहुँच गया। मैंने देखा कि बिन्नी राघव के सामने खड़ी हुई रो रही थी। पहले तो मुझे बहुत गुस्सा आया लेकिन फिर मैंने संयत होकर बात की तह तक पहुँचना उचित समझा।
मैं छिपकर उनकी बातें सुनने लगा।
“इसमें तुम्हारी बेवकूफी है बिन्नी! तुमने सावधानी क्यूँ नहीं बरती?”
“गलती तुम्हारी भी थी राघव तुमने मुझे इसके लिए मजबूर किया और आज तुम इन सबसे बचना चाहते हो।”बिन्नी फफकते हुए बोली।
“तो मैं क्या करूँ. . . . साथ तो तुमने भी दिया न. . . . अब रोओ मत फिक्र न करो।”
बिन्नी बरस पडी–“फिक्र नकरूँ! मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ और तुमकहते हो कि मैं फिक्र न करूँ , तुम्हें मुझसे शादी करनी होगी।”
“व्हाट् नोनसेंस! शादी और तुमसे।”
“क्यों हम दोनों एक दूसरे से प्यार करते हैं।
“प्यार व्यार को मारो गोली . . . . हमने बस एक दूसरे के साथ टाइम पास किया और कुछ नहीं ” बडी़ ही बेशर्मी से राघव बोल रहा था।
लेकिन. . . . . . यह सब सुनकर मुझे होश न रहा मैं तुरंत उन दोनों के सामने आ गया। बिन्नी मुझे देखकर सफेद हो गई। मैंने राघव को पकड़कर उसको पीटना शुरू कर दिया।।।।
“मैं तुझे जिंदा नहीं छोडूँगा . . . . . कुत्ते तूने मेरी बहन की जिंदगी बर्बाद कर दी। मैं चिल्ला रहा था और राघव को पकडकर पीट रहा था। किसी तरह से वह मेरी पकड़ से छूटकर भाग गया।
मैं गुस्से में था. . . मैंने बिन्नी को लगभग घसीटते से हुए पकड़ा और उसे घर ले गया। हमें इस तरह देखकर मम्मी पापा परेशान हो गए। मैंने लगभग धक्का देते हुए बिन्नी को पापा के सामने गिरा दिया।
पापा गुस्से में बोले–“ये क्या बद्तमीजी है, वो तुम्हारी बडी बहन है।”
“यह राघव. . . . . .
“तो” मेरी बात बीच में ही काटते हुए चिल्लाए पापा “अगर राघव के साथ थी तो क्या हुआ।
मेरी आँखें नम हो गई । मैं सिसकी लेते हुए बोला—“आपकी पतंग लुट गई पापा।”
मेरी बात सुनते ही पापा को धक्का सा लगा वे गिर ही जाते अगर मम्मी उन्हें न सँभालती।
मैंने इतना कहा और सिसकते हुए बाहर निकल गया।
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मैं जब बाहर से आया तो मैंने देखा। बिन्नी अपने सिर को अपने पैरों में दिए हुए रो रही थी। मम्मी मायूस सी पापा को सँभाले खड़ी थी और पापा रज्जो दादी के फोटो के सामने खडे़ हुए हाथ जोडे़ कुछ बुदबुदा रहे थे। मानो अपनी किसी गलती की माफी माँग रहे हों और दादी शायद अब भी यही कह रही थी. . . . .
“मोनू लडकियाँ पतंग होती हैं. . . . . उनकी डोर को खींचना पड़ता है. . . . . यदि उन्हें ढील दी तो. . . . . . . ..वे बहक जाती हैं .”
सोनू हंस