‘रक्षा-बंधन’
भाई-बहन की परिष्कृत प्रेम की गाथा ले आता है,
जब-जब रक्षा-बंधन का त्यौहार आ जाता है |
वो आंगन में खेलना साथ-साथ,
कभी तु-तु,मै-मै, कभी झगड़ना प्यार से,
कभी शिकायत करना एक-दुसरे का, माँ से |
सभी स्मृतियाँ मानस-पटल पर उभर आता है |
जब-जब रक्षा-बंधन का त्यौहार आ जाता है….
होकर दुनिया की रस्म से आबद्ध,
चली छोड़ के भाई का आंगन,
वो दिन हृदय-विदारक था,
बची न मेरे पास कोई शिकायत था |
मैं बेसुध,अनभिग्य-सा खड़ा था,
लुडो की गोटियाँ घर के कोने में पड़ा था |
माँ की ममता, पिता का प्रेम छोड़कर,
कर भाई को अकेला,रख हृदय में पत्थर |
नव-जीवन की अागाज को चली,
वर्षों जिसकी बचपन इस घर में पली |
वो सभी यादें किसी धारावाहिक-सा रिकेप(recap)हो जाता है |
जब-जब रक्षा-बंधन का त्यौहार आ जाता है..
—पवन कुमार मिश्र ‘अभिकर्ष ‘
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