#रक्तचरित्र
🚩 ( संस्मरण )
★ #रक्तचरित्र ★
मेरी तीन बहनें हैं। शकुंतला, संतोष और उषा। तीनों मुझसे छोटी हैं लेकिन, केवल आयु में।
शकुंतला, जो पूनम मारवाह हो गई, उसके पति सेठ विमल मारवाह जी ओ.ऐन.जी.सी. के उच्च अधिकारी पद से सेवामुक्त होते ही गृहिणीसेवा में नियुक्ति पा चुके।
अहिंदीभाषी क्षेत्र से हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार जिनकी कविता, कहानी, उपन्यास आदि-आदि विधाओं पर साठ से अधिक पुस्तकें आ चुकीं और शेष आने को आतुर हैं। अब सम्मान जिनके हाथों में आकर सम्मानित हुआ करते हैं उन्हीं लेखनी के धनी की कविता हो चुकी संतोष।
फिरोजपुर (पंजाब) के सीमावर्ती गाँव में ससुराल है उषा की। उनके घर की छत से पाकिस्तान दीखता है। उसके पति श्री केवलकृष्ण मेहता जी मेरी ही तरह अल्पशिक्षित हैं। किंतु, पंचायतों- सभाओं में ऊंचा आसन उन्हीं से शोभित हुआ करता है।
१९६५ में जब पाकिस्तान ने छंब-जौड़ियां (कश्मीर) की ओर से आक्रमण किया तब भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी ने पंजाब की ओर से सेनाओं को कूच करने का आदेश दे दिया। पाकिस्तान के दुर्बुद्धि शासकों ने स्वप्न में भी इसकी कल्पना नहीं की थी। हमारी सेनाओं ने लाहौर के उपनगर बर्की को अपने अधिकार में ले लिया।
शास्त्री जी सच्चे अर्थों में जननेता थे। जब पाकिस्तान के माई-बाप अमेरिका ने अपने पिट्ठू की पिटाई से रुष्ट होकर हमें गेहूं भेजना बंद कर दिया तब शास्त्री जी ने देश का आह्वान किया कि प्रत्येक देशवासी सोमवार का उपवास किया करे और दूजा यह है कि जिस किसी के पास कितना भी छोटे से छोटा भूमि का टुकड़ा हो उसपर कुछ न कुछ उगाए। तब पूरे देश में सोमवार के दिन होटल ढाबे तो क्या चाय की दुकानें भी बंद रहा करती थीं।
हमारे घर के साथ लगती लगभग एक एकड़ बंजर भूमि पर पिताजी ने किसी गांव से मंगवाकर ट्रैक्टर चलवा दिया। हमने वहां गेहूं और मक्का की बिजाई की। साथ में कई तरह की सब्ज़ियां भी उगाईं हमने।
कहानी तब की है जब युद्ध छिड़े कुछ ही दिन हुए थे। तब हमारे पिताजी लुधियाना और फिरोजपुर के मध्य जगराओं रेलवे पुलिस चौकीप्रमुख हुआ करते थे। हमारा राजकीय आवास रेलवे स्टेशन से थोड़ा पश्चिम की ओर था। हमारे घर के दाहिनी तरफ सिपाहियों के आवास और फिर रेलवे के दूसरे कर्मचारियों के आवास थे। हमारे घर के सामने पूर्व से पश्चिम की ओर जाता कच्चा-पक्का रास्ता। रास्ते के परली तरफ बड़ा-सा भूखंड जिसके बाईं ओर मालगोदाम और दाहिनी ओर रेलवे स्टेशन था। बीच में रेल की पटरी।
उस दिन तीनों बहनें स्कूल से लौटीं तो घर के मुख्य प्रवेशद्वार पर ही ठिठककर रुक गईं। वहां से खूब बड़ी बगीची लांघने के बाद हमारा घर था। माताजी बरामदे में इन्हीं देवियों की प्रतीक्षा में खड़ी थीं। लेकिन, यह तो वहीं अटक गईं। माताजी ने वहीं से पुकारा, “क्या हुआ?”
तब तीनों बहनों की आयु क्रमशः चौदह, बारह और दस वर्ष थी।
तब तीनों भीतर आईं और संतोष ने माताजी से पूछा कि “माताजी, यह जो सामने रेलपटरी पर मालगाड़ी खड़ी है, जिस पर सैनिक अपनी बख्तरबंद गाड़ियों व टैंकों के साथ बैठे हैं। यह कबसे खड़ी है?”
“मुझे लगता है कि घंटा भर तो हो ही गया होगा। क्यों?”
“माताजी, यह सैनिक हमारे लिए देश के शत्रुओं के साथ लड़ने जा रहे हैं। न जाने कब से घर से चले हैं और कब लौटेंगे। घर का तो क्या ढंग का खाना भी कब मिलेगा इन्हें? हम आज खाना नहीं खाएंगे। आपने जो हमारे लिए बना रखा है वो दे दो। हम इन्हें खिलाकर आएंगे।”
“अरे, यह इतने सारे योद्धाओं के लिए तुम्हारे भोजन से क्या होगा। जो बना है तुम इन्हें देकर आओ मैं तब तक और खाना बनाती हूं।”
शकुंतला माताजी का रसोई में हाथ बंटाने लगी। पलक झपकने से पहले ही दूसरा चूल्हा भी जला लिया गया। सात वर्ष का श्याम और चार वर्ष का विनोद संतोष और उषा बहन के साथ हो लिए। अभी उनका दूसरा फेरा ही था कि साथ लगते अन्य घरों से भी लोग पुण्य कमाने निकल पड़े।
जगराओं रेलवे स्टेशन पाकिस्तान की सीमा से इतनी-सी दूरी पर है कि जब सीमा पर भारी तोपखाने से गोलाबारी होती तब यहां प्लेटफार्म में कंपन हुआ करता था।
तब पंजाब में हवाई हमले से बचाव के लिए खाईयां खुद चुकी थीं। लेकिन, जब हवाई हमले का भोंपू बजता तब बलपूर्वक बच्चों व बूढ़ों को खाईयों में भेजने का असफल प्रयास कर चुकने के उपरांत लोग छतों पर जा चढ़ते। पंचनदवासी नहीं जानते कि भय क्या होता है।
ऐसे ही एक दिन लोगों ने देखा कि पाकिस्तानी वायुसेना के एक विमान को हमारे दो विमानों ने घेर रखा है और वो नगर के ऊपर चक्कर लगा रहा है। संभवतया उसका लक्ष्य वहां से मात्र चालीस मील दूर लुधियाना था। हमारे वीर वायुसैनिकों द्वारा चेतावनी देने पर भी जब उसने निकटवर्ती हलवारा विमानपत्तन पर उतरने से मना कर दिया तब वीर रणबांकुरों में से एक ने उसे गोली मार दी। वो शत्रुविमान धू-धूकर जलता हमारे घर के ऊपर से निकलता हुआ रेलवे स्टेशन के पू्र्वी छोर पर दूर खेतों में जाकर गिरा।
ठीक उसी समय जगराओं के एकमात्र सिनेमाघर में ‘संगम’ फिल्म चल रही थी। और ठीक उसी समय पर्दे पर वो दृश्य आया जब फिल्म के नायक राजकपूर के विमान को गोली लगती है। बाहर आकाश में और सिनेमा के पर्दे पर यह घटना एकसाथ घटी। दर्शकों में एक भूतपूर्व सैनिक भी था, जो यह चिल्लाते हुए बाहर की ओर दौड़ा कि “गोली चल गई”।
और उस दिन जब हमारे घर की गिलहरियां और वानरसेना के दो बालसैनिक रामसेतु में अपना योगदान देने को घर और रेलपटरी के बीच निरंतर दौड़ लगा रहे थे तब पवनदेव ने यह सूचना रेलवे स्टेशन की समीपवर्ती बस्तियों तक पहुंचा दी।
तब जिसके हाथ जो भी खाने-पीने का सामान लगा वो लेकर माँ भारती के वीर सपूतों की सेवा में पहुंचता गया।
यही हमारा धर्म है और यही हमारी संस्कृति है। यह विचार हमें हमारे पूर्वजों से मिले हैं। जो हमारे रक्त में रम गए हैं।
हमें जहां कहीं किसी से कुछ भी सीख मिले हम उसे अपना भी लिया करते हैं और उस शिक्षक को सहज में ही गुरु भी मान लिया करते हैं।
उस दिन मैंने अपनी बहनों से भी बहुत बड़ी सीख ग्रहण की कि हम तभी सुरक्षित हैं जब हमारा देश सुरक्षित है हमारा धर्म सुरक्षित है।
प्रणाम देवियो !
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२