“रंग भले ही स्याह हो” मेरी पंक्तियों का – अपने रंग तो तुम घोलते हो जब पढ़ते हो
मेरी पंक्तियों का “रंग भले ही स्याह हो” –
रंग तो अपने तुम घोलते हो
जब पढ़ते हो
अपने ही कुछ छुपे रंगों से
खुद से परिचित कराते हो
हमने तो बस अपनी बात लिखी है
ये तो तुम हो जो उनको
अपनाते हो –
अपना ही रंग देखते हो
वैसे हमने भी कुछ और कई
खूबसूरत रंग हैं देखे,
कुछ गहरे तो कुछ फीके भी थे
रंग हर अलग अध्याय का
अलग एहसास की
एक अभिव्यक्ति भर ही तो है –
अक्सर उन पन्नों को उलटे – पलटते
कभी हरकत होठों की होती है
तो कभी छलकती आँखे भी हैं
और कभी वो रंग धुल के
आंसुओं में कपोलों पर ढलक के आती है
जिनका कोई रंग तो नहीं होता –
बस एक नमकीन सा स्वाद छोड़ जाती है
सच तो ये है – रंग अलग अलग
तो अपने तुम घोलते हो
जब तुम पढ़ते हो
भले ही मेरी पंक्तियों का “रंग स्याह हो”