रंग चेहरे के कितने बदलते रहे
दिल दिया चैन खोया अकेले रहे
रंग चेहरे के कितने बदलते रहे
ज़ीस्त में रंजोग़म के भी मेले रहे
फुरक़तों के सदा ख़ूब जलसे रहे
हिज्र के मौसमों को भी सहते रहे
रोज़ तन्हाइयों में सिसकते रहे
यूँ बहाने लगे झूट वादे रहे
हम खड़े रास्तों पर सुलगते रहे
बारिशों में पिघलकर बहे ख़्वाब यूँ
हम तो भीगे मगर फिर भी जलते रहे
मेरी आँखों में अक्सर मेरे दोस्त की
हसरतों के हसीं ख़्वाब पलते रहे
तंज भी जो किया इस तग़ाफ़ुल से क्यों
सोचकर उस अदा में उलझते रहे
पत्थरों ने कहानी लिखी है नई
फूल सारे हुये यूँ संवरते रहे
ये ज़माना हंसा हौसला कम न था
फिर भी ‘आनन्द’ गिरकर संभलते रहे
शब्दार्थ:- फुरक़त = वियोग/जुदाई, हिज्र =वियोग/जुदाई/विछोह, तग़ाफुल = उपेक्षा/गफ़लत
– डॉ आनन्द किशोर