योग्यतम की हत्या
मैं नापता हूँ उन तस्वीरों को,
जो नापती हैं मुझे उस ऊंचाई से,
जिसे मैंने प्रदत्त की है,
तमाम जोड़-तोड़ से,
लाग-लपेट से,
चरण चुम्बन से,
घुसे हैं ऐसे लोग ही प्रतिष्ठित प्रतिष्ठानों में,
शिक्षा संस्थानों में,
विधि के विधानों में,
सत्ता की दुकानों में,
ऊंचे मचानों में,
रहे हैं खेल जो राणा की रोटी से
और स्वाभिमान की ज्योति से,
इससे तो भली थी दिल्ली की वह सल्तनत,
मिलती थी जिसमें गुलाम को भी इज्ज़त,
पद और प्रतिष्ठा,
सिर्फ योग्यता व प्रतिभा से,
कहलाये सभी सुल्तान,
चाहे ऐबक,इल्तुतमिश चाहे हों बलबन महान,
आज योग्यता व हुनर हुई है दरकिनार,
सिजदा में झुकी हैं सारी लोभ की मीनार,