ये ज़माना हवा-हवा सा है
ये ज़माना हवा-हवा सा है,
दिल मेरा भी बुझा-बुझा सा है।
हुस्न भी अब उदास बैठा है,
इश्क़ भी कुछ थका-थका सा है।
दिल उसी पर न क्यों यक़ीन करे,
जिसका वादा वफ़ा-वफ़ा सा है।
वो करेगा न कुछ यकीं है मुझे,
उसका दावा हवा-हवा सा है।
मर्ज़ तो लाइलाज है फिर भी,
उसका आना दवा-दवा सा है।
झूठ मैंने कहा नहीं जब से,
ये ज़माना ख़फ़ा-ख़फ़ा सा है।
लबकुशा मैं हुआ ज़रा सा क्या,
रंग उसका उड़ा-उड़ा सा है।
यूँ तो पैसा ख़ुदा नहीं लेकिन,
फिर भी कुछ-कुछ ख़ुदा-ख़ुदा सा है।
तुम नहीं तो नहीं शनासाई,
शहर ये अब नया-नया सा है।
वो ख़ुशी से मिला तो है ‘माहिर’,
अबके लहजा जुदा-जुदा सा है।
प्रदीप राजपूत ‘माहिर’