मुझमें निर्झर सी बहती है
ह्रदय विषाद हुआ है जितना,
उतना उससे चाह बढी,
वछ प्रान्त के भीतर -भीतर,
मलयज सी वो व्याप्त हुई।
अपरिहार्य कारणों के कारण,
आने को हृदय अगार में डरती है,
वो छोह चौकड़ी भर-भर कर,
मुझमें निर्झर सी बहती है।।
ये व्यक्त नहीं हो सकता मुझसे,
शायद नूतन धरा की माया है,
अविलंब ही उसका होना है,
ईछण वृत्तांत से ये कहती है,
वाणी उसकी है मधुर,
हमसे निश्छलता की चाह भी रखती है,
वो छोह चौकड़ी भर-भर कर,
मुझमें निर्झर सी बहती है।।
उत्कंठित उत्कंठा के उद्घत में,
भद्र नारी सी दिखती है,
अपितु कान्ति जो देखे उसमें,
उसको इबादत सी ही लगती है,
वह व्रीडा रमणी ऐसी ही है,
जिसे देख प्रीत ही उमड़ती है,
वो छोह चौकड़ी भर-भर कर,
मुझमें निर्झर सी बहती है।।