ये मजदूर
गर्मी की शिद्दत से नींद टूटी,
लाइट चली गयी थी।
अभी जाना था इसे भी;
ऊपर से रोजा..
मन उखड़ा उखड़ा सा था कि,
औरतों के हंसने की आवाज़ें आने लगी..
सडक़ किनारे घर है तो सोचा औरतें होंगी कहीं जा रहीं होंगी, पर उनका हंसना बोलना जारी रहा तो खिड़की पे आ गयी,
बाहर देखा इतनी धूप में सामने वाले प्लाट पर दो औरतें मजदूरी कर रहीं थीं..
काम करते हुए बातें करतीं और खिलखिला उठतीं..
जैसे सूरज को चिढ़ा रहीं हों, भूख को चुनौती दे रहीं हों, हम पर तेरा कोई असर नहीं, हिम्मत है तो डरा कर दिखा..
पेट के आग की जलन में इतनी तपिश है ,कि न जाने कितने सूरज ये यूँहीं निगल जाती है ,और ये सूरज इन्हें सर्दियों की धूप जैसे गुनगुनी सी महसूस होती है, रात इनकी यकीनन हमारी रातों से कहीं ज़्यादा सुकून देती होगी.. बिना ए. सी. के, फर्श पे बिछी चटाई खुला आसमान ,बहती हवाएं, इन्हें हमसे बेहतर सुकून देते होंगे..
यही तो हैं वो लोग जिनसे दुनियां खूबसूरत है, जिन्होंने न जाने कितनी मंजिलों मकानों की बुनियाद रखी, बुलंद ऊंची ऊंची इमारतें,
की हाथ बढ़ाओ तो चाँद छू जाए, बादल मुट्ठी में आ जाएं,
हमारे ख्वाबों को सजाने वाले , ख्वाब खूबसूरत घर का जो इनके हाथों ही पामाल होता है, और यही लोग हर टूटते ख्वाहिशों के टुकड़े लिए , उसकी कांच सी चुभती धुन पे गाते गुनगुनाते खामोश हो जाते हैं।
आह! ये मजदूर…