ये नफरतें
चल आज ज़ाहिद सरहदों से आगे बढ़ते हैं,
मस्जिद में गीता मन्दिर में कुरान पढ़ते हैं।
न हिंदू हो मुसलमां कोई सिख औ’ ईसाई,
चल मूरत ऐसे इनसान की आज गढ़ते हैं।
फर्क क्यूँ इंसाँ-इंसाँ में ख़ूँ तो लाल ही है,
नज़रिया खुद का गलत दोष ख़ुदा पर मढ़ते हैं।
न मायूस हो तू कश्ती साहिल तक लाने में,
करने हाथ दो-दो तूफाँ की ओर बढ़ते हैं।
खड़ी करते ‘हंस’ कुछ लोग दीवार नफ़रत की,
बो ज़हर की बूँदें चैन के बिस्तर चढ़ते हैं।
सोनू हंस