ये ध्वज कभी झुका नहीं
रचना नंबर (18)
ये ध्वज कभी झुका नहीं
स्वतंत्रता की चाह में
शताब्दी गुजार दी
इक सिपाही पांडे ने
चिंगारी जो सुलगाई थी
सर पे कफ़न बांधकर
बादल पे होकर सवार
लक्ष्मी अकेली चल पड़ी
जागीरों के मोह में
घर के भेदिये छुपे रहे
रानी कभी थकी नहीं
ये ध्वज कभी झुका नहीं
बरसों बहाए स्वेद कण
जुल्म भी सहे अनेक
बन गए गुलाम हम
फिरंगियों के राज में
मात सी जमीं हमारी
गिरवी रखी सी हो गई
मेहनत हमारी क़ायदे की
उनके हुए सब फ़ायदे
मज़बूरियों के मारे हम
मजदूर बन थके नहीं
ये ध्वज कभी झुका नहीं
लाठी की एक टेक पर
करोड़ों साथ चल पड़े
क्रांति का बिगुल बजा
हर भारतीय निकल पड़ा
स्वतंत्रता की राह पर
नदियाँ लहू की बह चली
तिलक-भगत-आज़ाद ने
नेताजी के आक्रोश ने
आहुति दी है प्राणों की
कदम कभी रुके नहीं
ये ध्वज कभी झुका नहीं
स्वरचित
सरला मेहता
इंदौर म प्र