ये दौर है गलतफहमियों का।
ये दौर है गलतफहमियों का।
आप सवेरे-सवेरे जाग कर मोबाइल देखते हैं खासकर न्यूज से अपडेट रहने के वास्ते ऐसा किया जाता है सम्भवतः 90 प्रतिशत लोग ऐसा करते हैं, उनमें मैं भी शामिल हूँ या आप कुछेक देर के लिए TV पर न्यूज़ देखना शुरू कर देते हैं वैसे ये आदत बेहतर है मगर क्या आप जानते हैं जो भी आप TV के खबरों या मोबाइल स्क्रीन पर तमाम तरह के खबरों को देखते हैं या पढ़ते हैं उनमें सच्चाई कितनी होती है? खबर चाहे किसी के पोस्ट करने से हो या किसी के कुछ लिंक/फोटोज वगेरह शेयर करने से हो।
बरहाल हम लोग इस शोसल मीडिया का शिकार होते जा रहे हैं, किसी ने कुछ लिख दिया किसी के बारे में तो हम उसपर तरह-तरह के विचार प्रकट करना शुरू कर देते हैं यहाँ तक कि मानसिक पीड़ाओं से ग्रस्त लोग भी उसपर राय या मश्वरा देने पहुँच जाते हैं, जबकि सच्चाई बिल्कुल हट कर होती है। इन गलतफहमियो के चक्कर में हमारे आपसी रिश्ते-संबंध खत्म तो हो ही रहे हैं साथ में मानवता का इंतकाल भी हो रहा है, हम इस बेहतरीन दुनिया में जीते-जी नरकलोक में जी रहे हैं और हमें इस बात को प्रमुखता से समझना होगा वरन भविष्य की पीढ़ियों के वास्ते परिणाम बेहद गभीर हो सकते हैं।
मैं देख पा रहा हूँ पिछले तकरीबन दो-तीन सालों के आसपास से मैंने देखा है कि लोगो की प्रवृति भी अब बेहद निराशाजनक और नाकारात्मक हो चुकी है खासकर इस शोसल मीडिया/मीडिया तंत्र के भ्रमों के कारण; लोग पढ़ते हैं और उसमें अगर कुछ भी वांछित बुराई दिखती है (हालाँकि होती नहीं) तो ( वैसे अच्छाई पर लोग ध्यान नहीं देते ) धे-पेल शेयर पर शेयर कर देते हैं! खुद तो नकारात्मकता में जीते ही हैं साथ ही साथ और लोगो को भी उसमें इन्वॉल्व करने में कतई कसर नहीं छोड़ते।
कई दफ़े हमने देखा है कि किसी अन्य देश की वीडियो या किसी जमाने में बनी मूवी की क्लिप या फ़ोटो को काटकर आज के हाली परिदृश्यों में लगाकर या चिपकाकर उसे धड़ल्ले से शेयर किया जाता है, शेयर करने वालों में सभी तरह के लोग हैं पढ़े-लिखे समझदार लोग भी और कम पढ़े लिखे आदमी भी। ऐसा करने वाले लोग खुद को न जाने क्या जताते हैं या जताना चाहते हैं इस पर अगर वार्तालाप किया जाय या डिबेट जैसी परिस्थिति बनाई जाए तो कई अपने भड़क भी जाते हैं।
एक और बात जब एक अच्छा आदमी कुछ लिखता है और समझने वाले उसको कुछ और समझ बैठते हैं, समझाने पर भी वो समझते नहीं या फिर समझना नहीं चाहते ये दशा भी बहुत अज़ीबोगरीब क़िस्म की समस्या है! समस्या कुछ नहीं असल में जलन की भावना समाज में विलक्षित है, आज हरेक आदमी हरेक आदमी को दबाकर ऊपर उठना चाहता है, जबकि किसी को भी कल की खबर नहीं!
इस नकारात्मक भरे समाज में खुद को सकारात्मक रखना मानो चांद-तारे तोड़ने जैसा है, लोग सामने हँसते हैं मुस्कराते हैं, ढांढस बधाते हैं, साँत्वना देते हैं और भी न जाने तरह-तरह का ढोंग करते हैं, पीठ पीछे वही लोग तुम्हारी अवहेलना करते हैं! और भला लोग एक दूसरे को ऊपर उठाने का प्रयत्न करें या सच में एक दूसरे की भलाई सोचें तो समाज का कोई भी तबका खुद को ठगा हुआ महसूस नहीं कर सकता बशर्तें वो सब-कुछ पर्दे के पीछे भी किया जाय जो सामने किया जा रहा हो।
✍️ Brijpal Singh