ये गणित और ये जिंदगी
जिंदगी भी गणित के फार्मूले जैसी ही है, समझ में आ जाए तो आसान है वरना इस उलझन से बाहर निकलना मुश्किल है। जब गणित विषय पढ़ा था तब इतना रोचक कभी नहीं लगा। एक फार्मूला जो मुझे बहुत रोचक लगा उसे आप लोगों से साझा कर रही हूं।
गणित में पढ़ा था कि समान चिन्ह वाली संख्याएं हमेशा जुड़ती हैं (परिणाम धनात्मक ही होता है, चाहे दोनों संख्याएं ऋणात्मक ही क्यों न हो…) और असमान चिन्ह वाली संख्याएं घटती हैं हमेशा (ऋणात्मक) होती हैं और चिन्ह बड़ी संख्या का ही लगता है। ऐसा ही कुछ हम अक्सर जिंदगी में भी महसूस करते हैं। विचारधारा समान हो तो परिणाम हमेशा सकारात्मक (धनात्मक) आता है लेकिन इसके विपरीत यदि असमान विचारधारा जब मिल जाए तो परिणाम नकारात्मक (ऋणात्मक) ही समाने आता है…और अपने-अपने वर्चस्व को श्रेष्ठ बताने की होड़ सी लग जाती है जैसा कि हमने गणित में पढ़ा है कि हमेशा चिन्ह बड़ी संख्या का ही लगता है।
जीवन में समान विचारधारा हमेशा ही श्रेष्ठ होती है और संबंधों में गहरी मिठास का सबब बनती है। मुझे लगता है कि समान और असमान विचारधाराओं का प्रार्दुभाव शिक्षा और ग्रहण करने की क्षमता पर निर्भर करता है…। इस दुनिया में जब बच्चा जन्म लेता है तो आभा मंडल तो लगभग एक समान ही होता है लेकिन जैसे-जैसे उसका विकास होता है वो अपने आप को गढता है, अपने विचारों को परिपक्व करता है….। यही वो दौर होता है जब विचारों में धनात्मक और ऋणात्मक जैसे चिन्हों का कोई असर नहीं होता लेकिन जब हम परिपक्व हो जाते हैं तब हमारा व्यवहार और क्षमता हमें और हमारे विचारों को सीमित कर देते हैं, हम अपने दायरे खुद तय कर लेते हैं कि हमें कहां तक और कैसे सोचना है…। जिंदगी में भी गणित वैसा ही है जैसा किताबों में…बस अंतर इतना है कि गणित में परिणाम हमेशा हमारी समझ पर निर्भर करता है उसे दोबारा सुधारा जा सकता है लेकिन जिंदगी में सुधार के अवसर बेहद सिमट जाते हैं….। ये हमारा बर्ताव ही तय करता है कि हमारी पीढी किस दिशा में जाएगी क्योंकि उसके विचारों में हमारी समझ का हिस्सा कुछ ही मात्रा में सही लेकिन समाहित तो अवश्य होता है…।
कमला शर्मा