ये क्या हुआ
हुए मंदिर के पट क्यों बंद बहुत नाराज़ हैं अम्मा,
कभी अस्सी बरस में न देखा ऐसा आया यह कोविद निकम्मा।
लाॅक डाउन में बाऊ जी के तो रुतबे भी जैसे हो गए डाउन,
थे मुखिया बन गये घर की मुर्गी शीश से जैसे उतर गया क्राउन।
बहुत ज़रूरी था तो घर से बाहर निकले मुंह पर मास्क हाथ हैं दस्ताने,
बाहर का यह हाल कि इंसान तो क्या गली का कुत्ता भी न पहचाने।
लगा ज़ोरों से भौंकने भागा पीछे हमारे अड़ा कर अपनी जान,
लाभ यह हुआ दस मिनट की जगह हम चार मिनट में ही जा पंहुचे दुकान।
दुकान क्या भैया हुलिया ही बदला-बदला सा लगा वहाँ का,
कैसा जीवाणु फैला ये नक्शा ही बदल दिया सारे जहाँ का।
रस्सी बांध कर एक मीटर पर लगा रखी थी उसने रोक,
कुत्ते महाशय ने पसीने से भर दिया लगातार हम पर भौंक-भौंक।
आखिरकार खरीद दुकान से बिस्कुट डाला थोड़ा-थोड़ा,
तब कहीं जा उस नवाब ने हम ग़रीब का पीछा छोड़ा।
लाॅक डाउन में बड़े तो क्या बच्चे भी ऐसे
बोलें ज्यों बुज़ुर्ग खड़े हैं,
कल नन्ही बेटी बोली हमसे इस बार समर वेकेशन कुछ ज्यादा नहीं बड़े हैं ?
विवाहित पुरुषों की ज़िन्दगी तो सचमुच जैसे शामत में है,
जिनके यहाँ काम वालियाँ थीं कभी आज उन की जान सांसत में है।
कभी फिनाइल कभी ब्लीचिंग और कभी डिटाॅल डालो,
बैठकर न लगा सको तो खड़े-खड़े ही चलो ज़रा पोंछा लगा लो।
सारे ठेके, स्वीगी, जमैटो और मैकडी होटल हुए बंद,
बन गये पावन शाकाहारी चाइनीज़ इटैलियन डिश भूले बाहर की गंध।
बुज़ुर्गों की नेक सलाहें न मान जिन्हें चकमा देने में थी महारथ,
उनकी जिव्हाएं अब करती डिस्कस श्लोक मंत्र रामायण और महाभारत।
बाहर का सन्नाटा देख हम पहुंचे पीछे बरस पचास,
सोचा इक बार दौड़ लगा दें पर न टांगों में थी शक्ति न मन में उजास।
4 मई को जब मिली छूट तो जाम से जाम टकराए ऐसे………
कि न रहा ओर-छोर बाढ़-सी आ गई रास्ते जाम हो गए,
झूम बराबर झूम के किस्से महफिल में आम हो गये,
और जिन पर पड़े उसके जो ज़रा से छींटे वो बे वजह बदनाम हो गए…..
दोस्तों ! वो बे वजह बदनाम हो गए??
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्वरचित मौलिक व अप्रकाशित रचना
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