ये कैसी पनघट की डगर
ये कैसी पनघट की डगर
ये कैसी पनघट की डगर ,जिसका न कोई हमसफ़र
चल पड़े घर की ओर , सूझती नहीं कोई डगर
जिसने पूछा हाल मेरा, वो हो गया मेरा रहबर
जिसको न मिला रहबर , वो भटक रहा दर – दर
सड़कों पर हैं बच्चे जन्मे , ट्रेनों ने भी सही ये पीड़ा
अभिमानी नेता न जाग रहे, किसे सुनाएँ विपदा
सड़कें लहू की हो रही प्यासी , ट्रेन भी जुल्म ढहाए
किसको रोयें किसे न रोयें , कोई तो घर पहुंचाए
पैदल जंग बहुत हैं हारे, कुछ भूखन के मारे
नेतन से अब हुआ मोहभंग , पड़ेंगे वोटन के लाले
पार्टी फण्ड के दानी अब सब छुपे कहाँ हैं सारे
मानवता चीख – चीख पुकारती, निकलो नेताओं के प्यादे
धर्म के ठेकेदारों के अब दर्शन नहीं हैं होते
धर्म का डंका पीटने वाले, अब हैं घरों में सोते
मानव बदला मानवता बदली , मानव हुआ अनाथ
सबके दाता राम तो फिर हमरे कौन हैं नाथ
माँ बहनों का प्यार, आ रहा याद हम सबको
कष्ट की इस त्रासदी में , कोई बचाओ हमको
कोरोना की मार ने सबसे ज्यादा हमें रुलाया
राजनीति के ठेकेदारों से रूबरू हमें कराया
ये कैसी पनघट की डगर ,जिसका न कोई हमसफ़र
चल पड़े घर की ओर , सूझती नहीं कोई डगर
जिसने पूछा हाल मेरा, वो हो गया मेरा रहबर
जिसको न मिला रहबर , वो भटक रहा दर – दर
नोट – यह रचना कोरोना काल में लिखी गयी है |