ये कैसा इंसान हो रहा है!
तू छोटा मैं बड़ा का घमासान हो रहा है
समझ में नहीं आता ये कैसा इंसान हो रहा है
जोड़ तोड़ कर पैसा कमाया बहुत ज़्यादा
मुद्दा उसका बस रुपया भूल गया हर एक वादा
उम्र गुजारी भोग विलासिता में
कमाना ही रह गया था उसका इरादा
जब पधारे यम की दूत पास में
देख गिड़गिड़ाकर कैसे रो रहा है
समझ नहीं आता ये ऐसा इंसान हो रहा है
धर्म-कर्म कुछ किया नहीं सारी बातें उसने नकारी
दान-पुण्य की बात नहीं ,ना ही दी किसी को उधारी
निकल जाता था रोब झाड़ कर रोज घर से
वो हाथ फैलाए दर पर बैठी रहती थी बेचारी
एकबार में भजन-कीर्तन और चढ़ावा बहुत सारा
स्वार्थी जाकर गंगा में अपने पाप धो रहा है
समझ नहीं आता ये कैसा इंसान हो रहा है
महलों में रहा ,सोने के बर्तनों में जलपान किया
खुद का घर था जगमग, साथ में गया ना एक दिया
जीवन का मतलब समझा नहीं वह कभी
कहता रहा मैं तो सदा ऐश में जिया
पता चल जाता है अंत में की
वो इस प्रकार से खुद ही कांटे बो रहा है
तू छोटा मैं बड़ा का घमासान हो रहा है
समझ नहीं आता ये कैसा इंसान हो रहा है
प्रवीण माटी