ये कैसा अनूठा नेह और विश्वास है
हमने कभी पेड़ के पीछे से लरजते हुए अहसासों को देखा है, हमने कभी पेड़ और पत्तियों के वार्तालाप को सुना है, हमने कभी सूर्य के उस अहसास को महसूसने की कोशिश की है जो वो दिन के पूरा होने पर सांझ और इस प्रकृति को बांट जाता है। सूर्य के उस रागालाप, प्रेमालाप और नेहालाप को समझने की कोशिश है…सूर्य पूरा दिन धहकता है लेकिन सांझ जब प्रकृति की गोद में सुस्ताने पहुंचता है तो वो एक मासूम बालक की भांति पैर फैलाकर लेट जाता है…। प्रकृति उसे भी अपनी मां जैसा ममत्व देती है और सांझ उसकी सबसे करीबी सखी है जो उसके नीचे आने पर ही श्रृंगार कर तैयार होती है…। ये कैसा अनूठा नेह और विश्वास है….। इस संबंध में कितनी खूबसूरती, कितना अपनापन, कितनी आतुरता, कितना ममत्व और दुलार है….। प्रकृति की पाठशाला सांझ में ही लगती है, उसमें पेड़़, पौधे, जीव, जन्तु, हवा, सूर्य, प्रकाश, सांझ, आध्यात्म, मौन, लौटती चहचहाहट, सुर्ख रेशमी आसमां…और खुद प्रकृति मौजूद होती है….। वो हमें रोज सबक देती है, ये सभी उसके सबक को सुनने के लिए आतुर रहते हैं…केवल हम और हमारा अहम…। हम नहीं पहुंचते, हमारा अहम नहीं पहुंचने देता…वो हमें भौतिकता के चक्र से बाहर ही नहीं आने देता….। प्रकृति की पाठशाला से कुछ सबक लेकर तो देंखे…। मजा आएगा, हम और गहरे इंसान होंगे, हम और जिम्मेदार मानव बन जाएंगे…।
संदीप कुमार शर्मा