ये अलग बात है
ये अलग बात है
अब तुम नहीं,
तुम्हारी परछाइयां हैं
मेरी हमसफर……
आज भी उम्मीद को थाम कर बैठा हूं
अपने नशेमन में,
आ जाओ शायद एक दिन,
उस एक दिन के लिए
सहेज कर रखी हैं
तमाम यादें और अनुभूतियाँ
शायद, तुम आओ,
और हिसाब मांगों मुझ से,
उन पलों का, दिन, महीने और सालों का
जो हिजरत में गुजारे है मैंने.
मैं ख़ुद ही सवाल कर लेता हूं
ख़ुद से..
और हिसाब भी दे देता हूँ
तुम्हें ख़ुद ही उन पल, क्षणों,
दिनों और रातों का.
जानता हूं
तुम लौट कर अब नहीं आओगी
चली गई हो तुम
मेरे साथ, मेरे पास अपनी
परछाई छोड़कर……
फ़िर भी…
मैं खुश हूं,
तुम्हारी परछाई के साथ
जो आती है हर रोज मेरे पास
कभी चाँदनी बन कर
तो कभी स्याही
अमावस की बन कर
कभी चांद, तो सितारे से कभी
मेरी खिड़की पर……
और, समा जाती है
मुझ में….
वो तुम्हारा अक्स बन कर
एक नशा बन कर,
जो उतरता ही नहीं कभी
जज्ब हो गया है मुझ में
तुम्हारी मोहब्बत की तरह.
हिमांशु Kulshrestha