यू-टर्न
यू-टर्न
*****
अच्छा सुनो,
अपनी चिट्ठी की
जो दसवीं पंक्ति है,
उसका सार बता दो,
शब्दार्थ मैं समझता हूंँ।
—
अच्छा याद करो,
वो घना सा बरगद,
ठंडी सुहानी बयारें
पीपल के पत्तों की सनसन
सामने अल्हड़
सरकती एक नदिया
तुम हरी दूब पर लेटी,
कुशा के तिनके गिना करती थी
तुम्हारे हरे दुपट्टे पे
रंग बिरंगे गेंदा फूल बने थे
मैं अपनी उंगलियों से
सुलझाया करता था लटें तुम्हारी.
महकते काले चमकते केशों की,
सुगंध ताजा है आज भी;
तुम्हें कितना गुदगुदाती हैं ,
वो अशेष मधुर स्मृतियां,
चिठ्ठी के अंत में लिखकर भेज दो,
तुम्हारी सीमाएं मैं समझता हूंँ।
—
फिर क्या हुआ,
कुछ अपनी कुछ मेरी कविताएं
तुम प्रकाशित करना चाहती थी
एक ही किताब में,
किसी तीसरे उपनाम से;
रुचि किससे कम हुई,
रचनाओं से,
मुझ से, स्वयं से
या अनोखी संधि से
या यह विवाद कि
तुम्हारे हृदय में
मेरा ही नाम गूंजता रहा
और तुम उपनाम न तय कर पाई,
तुम और तुम्हारे काव्य की
उहापोही मैं समझता हूंँ।
—
मेरे शहर से तुम तक
मीलों लंबी सड़क आती है
अक्सर मेरी कार
उसी हाइवे पे निकल पड़ती है
कभी दफ़्तर भूलता हूँ
कभी घर भूलता हूँ
कभी मीटिंग भूलता हूँ;
दूर किसी ढाबे पे
गुनगुनी धूप में ख़ामोश बैठे
दो चाय पी लेता हूंँ
चार-छः शेर कहता हूंँ
दो ग़ज़ल कहता हूंँ
तरो-ताजा महसूस करता हूँ
यू-टर्न तलाशता हूँ
और वापस लौट आता हूंँ;
तुम्हारी दिशा में
दूर तक चले आना
फिर लौट पड़ना
अच्छी मुलाकात लगती है
सीमाएं अपनी मैं भी समझता हूँ।
✍श्रीधर