“यूँ ही कभी…”
यूँ ही कभी विगत स्मृतियों के संग,
बैठी चाय की चुस्की लेती,
विहगों को विराट अनन्त की ओर,
निरुद्देश्य बढ़ते देखती।
यूँ ही कभी विगत स्मृतियों के संग,
कुछ मधुर गुनगुने संगीत सुनती,
कुछ अनसुनी सी धुन की ओर,
मन को विचरते देखती।
यूँ ही कभी विगत स्मृतियों के संग,
गुलाबी ठंड में धूप की शाल ओढ़ती,
कुछ भूले बिसरे से खेल की ओर,
नौनिहालों को खेलते देखती।
यूँ ही कभी विगत स्मृतियों के संग,
बरबस ही ध्यानमग्न हो जाती,
यूँ ही कभी…. यूँ ही कभी….
…निधि…