यूँ तेरी ज़ुल्फ़ों के सायों में उलझकर रह गया
यूँ तेरी ज़ुल्फ़ों के सायों में उलझकर रह गया
वो यहाँ अपने ही ख़्वाबों में उलझकर रह गया
कुछ ने तो ज़ारी रखा अपना सफ़र हंसते हुए
कोई राहों के चराग़ों में उलझकर रह गया
कुछ की किस्मत थी ग़ज़ब वो पार होकर चल दिए
कोई दरिया के किनारों में उलझकर रह गया
आजकल तो नींद भी कौड़ी हुई है दूर की
जागती आंखों के सपनों में उलझकर रह गया
देखते दिन-रात जिसको उम्र सारी काट दी
फ़िर वही इक ख़्वाब पलकों में उलझकर रह गया
मंज़िलें भी दूर हैं उससे यक़ीनन अब तलक
वो अभी सुनसान राहों में उलझकर रह गया
वो गया था ढूंढ़ने बचपन को अपने गांव में
गांव के कच्चे मकानों में उलझकर रह गया
खर्च करते वक़्त पैसा मुफ़लिसों के नाम पर
ज़ह् न की बेकार सोचों में उलझकर रह गया
हर तरफ़ ‘आनन्द’ दिखता है तिजारत का दखल
आज का इन्सान धोखों में उलझकर रह गया
– डॉ आनन्द किशोर