यूँ कि हम बोलते बहुत हैं पर कहना नहीं आता
यूँ कि हम बोलते बहुत हैं पर कहना नहीं आता
जीये रहगुज़र में दिल में तो रहना नहीं आता
आने से चला है किसी के न जाने से रुका है
जिंदगी के कारवाँ को कभी ठहरना नहीं आता
वो जीया ना जीया दुनियाँ में बराबर ही रहा
जिसको क़ौस-ओ-कज़ा बनकर बिखरना नहीं आता
साथ देते हैं लोग ज़माने की हवा को देखकर
अँधेरों में साये को भी संग रहना नहीं आता
अपने बनाए दायरे में खुश रहता है वो क्यूँकि
हालात के मुताबिक़ बंदे को ढलना नहीं आता
नहीं दरकार वाह-वाही की बस लिखना है मुझे
दिल को किसी एतराज़ से सिहरना नहीं आता
खुद लिखनी है अपनी उगाई फस्ल-ए-गुल की महक
बोलो कौन कहता है ‘सरु’ को लिखना नहीं आता
क़ौस-ओ-कज़ा —-इंद्रधनुष