*युद्ध*
विषय – मानवीय संकट – शीर्षक – युद्ध
ऑथर – डॉ अरुण कुमार शास्त्री
युद्ध जरूरत या मजबूरी तेरी या मेरी ।
कौन बताये , ये सवाल उठा सदा से कितना जरूरी ?
राष्ट्र , व्यक्ति , सीमाएँ , सबकी अपनी – अपनी भाव अभिव्यक्ति ।
कुछ के विचार नैसर्गिक , कुछ के कूटनीति से भरे ।
कुछ नेता , कुछ अभिनेता , सभी मौलिकता से परे ।
सत्ता में हैं जो अभी उनके प्रश्न अलग ।
सत्ता से जो हैं बाहर उनके मन्तव्य विलग ।
सुन्दर व्यवस्थित आलंकारिक परिवेश में लेकिन सभी सजे ।
सजीले सौष्ठव से लुभाते , कभी मुखरित कभी वाचाल ।
लेकिन स्पष्ट तो बिल्कुल नहीं इनकी चाल ।
जनता को ये जनार्दन बतलाते ।
मौका पड़ते ही रूप बदलते माई बाप कहलाते ।
शोषण कर कर उसी का धन कुबेर बन जाते ।
एक बार दीजिए मौका हर बार ।
हम बदल डालेंगे स्वरूप आपका ।
भाषण दे – दे कर कभी थकते नहीं ।
झूठ या सच से हटते नहीं ।
पहले मारते थप्पड़ करारा , फिर मांगते माफ़ी ।
बेशर्मी से ये बाज आते नहीं ।
गरीब की गरीबी हटाते – हटाते चुपचाप ।
गरीब से कब बना लेते दूरी , वाह साहब ।
मंजे हुए खिलाड़ी , कुशल कलाकार , सिद्ध प्रशासनिक,
इनके अतुलित संयमित लोकाचार ।
भीतर कुछ , बाहर कुछ , हाथी के दांत ।
खाने के और दिखाने के और ।
युद्ध जरूरत या मजबूरी तेरी या मेरी ।
कौन बताये , ये सवाल उठा सदा से कितना जरूरी ?
राष्ट्र , व्यक्ति , सीमाएँ , सबकी अपनी – अपनी भाव अभिव्यक्ति ।
कुछ के विचार नैसर्गिक , कुछ के कूटनीति से भरे ।