युद्ध
ना जाने उजारे मैंने घर कितनों का,
छीना सिंन्दुर कितनों का,
पिया ना जाने रक्त कितना,
फिर भी तृप्त ना हुआ मन।
मैं “युद्ध”हु भाई,
जब बोले काल सर चढ़,
मैं प्रकट हो जाता हूं तब,
तबाह कर देता सब-कुछ,
फिर भी दिल ना घबराता मेरा।
मानवों के लालच का,
मैं रुप प्रत्यक्ष हु,
मैं युद्ध हु भाई,
खाता नहीं रहम किसी पे।