युद्ध भीषण हो रहा था ( वीभत्स रस)
युद्ध भीषण हो रहा था।
मनुज मति तब खो रहा था।।
मांस के चिथड़े पड़े थे।
आँख गिद्धों के गड़े थे।।
पिशित मानुष का मिलेगा।
बोटियों से मन भरेगा।।
श्वान बैठा रो रहा था।
युद्ध भीषण हो रहा था।।
रक्त से वसुधा सनी थी।
अर्ति ये कैसी घनी थी।।
चील कौवे आ रहे थे।
नोच कर शव खा रहे थे।।
मनुज आपा खो रहा था।
युद्ध भीषण हो रहा था।।
तीर अरु भाले गड़े थे।
सिर कई धड़ से कटे थे।।
मुंड नर बिखरे पड़े थे।
माँस को पशु भी लड़े थे।।
रक्त ही भू धो रहा था।
युद्ध भीषण हो रहा था।।
#स्वरचित
पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’