“युद्ध के परिणाम “
दुशासन के लहू से,
अपने केशों को धो चुकी थी,
दुर्योधन की भी जंघा टूट चुकी थी,
कौरव वंश ख़ाक में मिल चुका था,
घर – घर में चिता जल रही थी,
विधवा और बच्चें रो रहे थे,
द्रौपदी मौन धारण कर,
शून्य में ताक रही थी,
अपने आप को दोषी मान रही थी,
कृष्ण पर नज़र पड़ते ही,
लिपटी और रो पड़ी,
अविरल अश्रु धारा रुकने का,
नाम नहीं ले रही थी,
सखा! यह क्या हो गया ?
यह तो मैंने सोचा ही नहीं था,
युद्ध तो युद्ध है पाँचाली,
जो हारता है, वह तो हारता ही है,
जो जीतता है, वह भी हारता है,
कोई तन, कोई मन, कोई वचन हारता है,
केवल प्रतिशोध लेना चाहता है इंसान,
परिणाम के बारे में कहाँ सोचता है?
क्रोध ऐसी अग्नि है पाँचाली,
हर लेती है हमारी सोच को,
क्या मैं उत्तरदायी हूँ?
इतिहास मुझे किस रूप में पहचानेगा?
इसकी चिंता न करो पाँचाली,
भीष्म पितामाह ने प्रण ना लिया होता,
धृतराष्ट्र ने महत्वकाँक्षा का जामा न पहना होता,
दुर्योधन ने हठ का आवरण न ओढ़ा होता,
काश। शकुनि ने बैर की रस्सी का छोर न पकड़ा होता,
अम्बिका प्रतिशोध की ज्वाला में न जली होती,
कर्ण को सूत पुत्र का शूल न चुभा होता,
तुमने अंधे का पुत्र अंधा का कटाक्ष न किया होता,
तुम्हारा यूँ भरी सभा में, चीर हरण न हुआ होता,
काश। कुन्ती ने तुम्हें यूँ पाँचों में न बटवाया होता,
काश। कुन्ती ने कर्ण को अपनाया होता,
शायद यह युद्ध ही नहीं हुआ होता,
बच्चें यूँ असहाय सड़कों पे न घूम रहे होते,
विधवाओं का यूँ मातम न होता,
युद्ध कारण है प्रतिशोध का,
शांति विकल्प है, क्रोध का,
काश। दुर्योधन ने शांति प्रस्ताव मान लिया होता,
आज बच्चें यूँ यतीम न होते,
यूँ वंशशंकरीसंताने पैदा न होती,
युद्ध के विकल्प में शांति मिले,
उसका कोई सानी नहीं पाँचाली,
मनुष्य को भविष्य में आने वाले,
तूफ़ान की आहट को पहचानना होगा,
तूफ़ान कभी दबे पाँव नहीं आते,
दस्तक़ को नज़रंदाज़ न करो “शकुन”,
वरन क्रोध रूपी तूफ़ान में,
बड़े – बड़े सूरमा भी ढह जाते हैं ||
– शकुंतला अग्रवाल