युद्ध आह्वान
रक्तरंजित हो भू पर गिरा हुआ था मैं एक दिन,
उसी समय, समय देखते आ खड़ा हुआ तूफां मेरे सामने,
मैं थका-माँदा-सा था,
कुछ कह न सका,
कुछ कहने की कोशिश की
पर उससे पहले तूफां बोल उठा,
ऐ मुसाफिर !
जाना तुझे है दूर अभी
और अभी ही थक गए,
वह देख दूर, नूर जहाँ है दिख रहा
जाना तुझे है उस नूर तक
और पाना तुझे है लक्ष्य जीवन का,
पर उससे पहले तुझे
टकराना पड़ेगा मुझसे,
क्या मेरा वार सह पाओगे तुम?
क्या कभी मुझे हरा पाओगे तुम ?
मैं हाँफते हुए, खड़ा होकर बोला
ऐ तूफां!
तेरे कितने ही दोस्तों को मैंने छोड़ रखे हैं पीछे ?
अब अंतिम बार विघ्न डालने आए हो तुम,
पर सुन लो ऐ घमंडी तूफां,
रोक न पाओगे तुम मुझको,
हूँ मैं रक्तरंजित पर उर्जाहीन नहीं,
जब तक न हराऊँगा तुझको
तब तक न मुझे चैन है,
मैं देता तुम्हें युद्ध आह्वान,
तू आ, तू आ, तू आ
लड़ एक जंग मुझसे
देखते हैं कौन बनता है बुलंद इससे?