युग-युगान्तर अनवरत
अच्छा नहीं है
आधे पन्ने से कविता करना,
गजलें लिखना,
हफ्ते भर की बातें
एक सांस में कहना,
क्या पता तुम्हें,
कितनी लम्बी होंगी बातें
कितनी पंक्तियों में
पूर्ण हो सकेंगी
बात चाहे पूरी हो न हो
शुरूआत बड़ी होनी चाहिए
बैठने की जगह चाहे कम मिले
पाँव पसार के सोना चाहिए
जिन्दगी चाहे
मुठ्ठी में बन्द क्यों न हो
स्वप्नों को लेकिन,
आसमान तक जीना चाहिए
दोपहर की कड़कती धूप से लेकर
रात के भयावह अंधेरों तक
दुनिया के
अनिश्चय से लड़ने के लिए
दो चार बातें
जो आधी अधूरी सीखी हैं तुमने
वे अभी निहायत अपुष्ट हैं
अभी भी बहुत कुछ
सीखना होगा तुम्हें
जीवन के
इस बीहड़ प्रदेश में
मृगमरीचिकाओं से
पग-पग पटकी खाते
गिरते उठते अटकते भटकते
यह तय है कि
जीवन का अभिप्राय अधूरा रहेगा
यह भी कि
तुम बेवक्त मार दिए जाओगे
भाग्य प्रारब्ध जन्मपत्री के बहाने,
किन्तु जो सर्वोच्च सच है
वो यह कि तुम्हारा लहू,
वक्त के तीखे खुरदरे
दरिन्दे खूंनी नाखूनों के खिलाफ,
तुम्हारे अस्तित्व के पक्ष में
युग युगान्तर तक अनवरत
खूब मल्लयुद्ध करता रहता है
जब बेफि़क्र सोये रहती हैं,
कोशिकाएं तुम्हारी
बहुत गहरी होती है
असली लहू की छाप
बहुत ऊँचा होता है
आदमी के लहू का स्तूप
आदमी के स्वर से
हजार गुना बड़ी होती है
इन्सानियत की आवाज
गिलहरी के बच्चों की तरह
आदमी ने बेबस बना दिया
आदमी का वजूद,
सच है कि,
हवा पानी सूरज धारती
बालू मिट्टी कंकर पत्थर
दिन रात दोपहर सुबह शाम
कुछ नहीं बदलते संसार में
किन्तु जो सर्वोच्च सच है
वो यह कि इन दीवारों से सने
बाबा आदम के इंसानी लहू को,
श्रद्धा और मनु के प्राणों को,
नहीं मिटा सकेंगी
आगामी सैकड़ों अरबों वहशी पीढ़ियां,
चौंधियाते उजाले लहू का सिर्फ़ रंग जानते हैं
लेकिन अंधेरे हैं कि
जमीन के गर्भगृह में कहीं,
लहू की असली पहचान बनाये रखते हैं।
-✍श्रीधर.