युग प्रवर्तक नारी!
युगों को पैरों से धकेल,
मिथ्या भ्रांतिओं को खदेड़,
लड़ कर सब से अकेले,
आगे बढ़ रही नारी।
कभी संस्कारों के बोझ तले दबाया गया,
कभी सही-ग़लत के पैमाने पर आंका गया,
कभी नियमों के दायरे में बाँधा गया,
कभी सिद्धांतों की साड़ी में लपेटा गया।
और……
कभी कर्तव्यों की बात कर भावों से खेला गया,
कभी फ़र्ज़ों की दुहाई दे मौन कर दिया गया,
कर्मों का कभी ज़िक्र छेड़ चौखट से बांधा गया,
कभी ईश्वर की बात कर घर-मंदिर दिखाया गया।
फिर भी बनी न बात तो…..
बल के प्रयोग से रौंदा गया,
तेज़ाब फेंक जलाया गया,
मानहानि हुई, ज़िल्लत मिली,
डरा के क़ैद कमरे में किया गया।
और साहस देखो उम्मीद ऐसी कि……
झेले सब चुप चाप नारी,
मुँह बंद रखे चाहे पीड़ा हो भारी,
ना माँगे कैद से आज़ादी,
रहे सदा पुरुषों की आभारी।
फिर आया ऐसा युग…..
उत्थान का मार्ग स्वयं प्रशस्त कर,
निकल पड़ी निडर एकल,
कब तक आख़िर मौन रहती,
कब तक सब पत्थर बन सहती,
रातों को मरना, बल से कुचला जाना,
तन-मन से खेलना, एकदम चुप रहना,
कब तक आख़िर सह पाती नारी?
और फिर…….
युगों को पाँव से धकेल,
पुरातन समय को खदेड़,
नया युग, अपना युग लाती नारी,
युग प्रवर्तक बन युग ही बदलती नारी।