युगपुरुष
उसको देखा है मैंने रात के अंधेरे में टिमटिमाते दीये की रोशनी की तरह ,
उसको देखा है मैंने किसी खत्म न होती कहानी की तरह ,
उसको देखा है मैंने ऊंची इमारतों से लेकर झोपड़ियों तक ,
देखा उसको मैंने फीकी मुस्कान से लेकर अठखेलियों तक ,
देखा मैंने उसे असमय मुरझाती कलियों की
तरह ,
जिन्हें ठोकर मारकर निकल जाती मजबूरियों की तरह,
उसको देखा मैंने जूझते समय के झंझावातों में ,
उसको देखा मैंने फंसते नियति के चक्रवातों में ,
उसको देखा मैंने अतीत के सुंदर सपनों में ,
और देखा उसे वर्तमान में निष्ठुर होते अपनो में ,
उसको देखा मैंने भविष्य की सार्थक योजनाओं में ,
और देखा उसे काल्पनिक निरर्थक भावनाओं में ,
देखा कभी उसको चढ़ते मैंने स्वार्थ की बलिवेदी पर,
और पाया कभी उसे निस्वार्थ त्याग की सीढ़ी पर ,
कभी उठते , फिर गिरते ,फिर संभलते पाया मैंने
उसे चलते ,
तो कभी टूटते फिर बिखरते फिर सिमटते पाया मैंने उसको घिसटते ,
पाया कभी मैंने उसे इतना शीत जैसे हो हिमखंड ,
तो कभी पाया धधकते उसे जैसे हो अग्नि प्रचंड ,
पाया कभी उसे इतना गहरा जैसे हो सागर विशाल ,
पाया कभी उसे इतना ऊंचा जैसे हो पर्वत विकराल,
फिर भी मुझे लगा वह निष्पाप निष्काम सब कुछ सहता हुआ ,
अपने मनोवेगों को दबाए मूक भावों में प्रकट करता हुआ ,
अर्थ और अनर्थ को स्पष्ट करता हुआ ,
तर्क से कुतर्क को नष्ट करता हुआ ,
न्याय और अन्याय को परिभाषित करता हुआ ,
वाणी से विचार को परिभाषित करता हुआ ,
राजनीति को धर्म से और कूटनीति को कर्म से
अलग करता हुआ ,
मानव और दानव के अंतर को स्पष्ट करता हुआ ,
लगता है वह समाहित किए हुए सब शिक्षा ,
परंतु निर्भर है उस पर जो अंतर्निहित करे यह दीक्षा,
कहलायेगा वहीं इस युग का युगपुरुष ,
वैसे तो बन जाते हैं इस युग में कई महापुरुष ।