याद आया वह गुज़रा ज़माना
आज फिर
वही काली घटा आई
क्यूँ फिर यादों की बदली छाई
चाय तो महज़
बहाना होता था
माँ से अपनी मनवाना होता था।
रिमझिम बरखा
कच्ची ख्वाहिशें
माँ से मधुर ज़िद भरी फरमाइशें
छत पर नाली रोककर
खूब धमाल
सखियों के संग मस्ती बवाल
नहाना छककर
फिर झूठा नाटक सर्दी का
बिस्तर पर पड़ जाना थक कर
मुख पर बौछारें
और चाय की चुस्की
अलमस्त मन था परवाह किसकी
वह चाय और वो पकौड़े
अब वह आनंद ढूंढे न मिलते
न ज्यादा और न ही थोड़े
मैके की नटखट मुनिया न
अब हूँ किसी के घर की लाज
सबको बनाकर यहाँ
पिलाती हूँ मैं चाय आज
ओ कारी बदरिया
जा मेरे बाबुल के अंगना बरस
माँ को जा संदेशा दे आ
मुनिया के नैन रहे हैं तरस
ओ माँ
अबके सावन वहीं बुलाना
फिर जब काली बदरी छाये
तेरे हाथ के चाय पकौड़े
एक बार फिर
छककर खिलाना
तुम वही मेरी
बचपन वाली माँ बन जाना
मुझे वही मुनिया बनाकर
एक बार फिर उसी छुटपन से मिलवाना
कुछ पल को ही सही
लौटा देना वह प्यारा-सा गुज़रा ज़माना।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्वरचित व मौलिक रचना
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