*याद आते हैं ब्लैक में टिकट मिलने के वह दिन 【 हास्य-व्यंग्य
याद आते हैं ब्लैक में टिकट मिलने के वह दिन 【 हास्य-व्यंग्य 】
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एक जमाना था ,जब मनोरंजन का एकमात्र साधन सिनेमा था और सिनेमा-घर में जाने के बाद टिकट मिल जाना अपने आप में टेढ़ी खीर होता था । हताश और निराश दर्शक ब्लैक में मिलने वाले टिकट की तलाश करते थे । ब्लैक में बेचने वाला पहले से ही इस तलाश में रहता था कि किसी दर्शक की निराशा से भरी हुई आँखें उस से टकराएँ और वह चतुराई से भरी हुई अपनी आँखों के इशारे से उसे एक कोने में ले जाकर ब्लैक में टिकट पकड़ा दे ।
जैसी कि कहावत प्रसिद्ध है “जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ” अर्थात जहाँ चाह है ,वहाँ राह है । जब दर्शक ब्लैक में टिकट खरीदने के लिए तैयार है ,तब बेचने वाला भी मिल ही जाता है ।दोनों की आँखें चार होती हैं और हाव-भाव तथा इशारों से यह पता चल जाता है कि एक पक्ष टिकट बेचने वाला है तथा दूसरा पक्ष टिकट खरीदने वाला है । सौदा होता है ,मोलभाव चलते हैं लेकिन अंत में सौदा पट जाता है।
टिकट को खरीदार के हवाले कर दिया जाता है । अब यह खरीदार की किस्मत है कि फिल्म उसे पसंद आए और पैसे वसूल हो जाएँ, या फिल्म लचर और बेजान साबित हो तथा पैसे डूब गए । साठ-सत्तर के दशक में यह टिकट का ब्लैक खूब चला । तब न सोशल मीडिया था और न टीवी के चैनल थे । दूरदर्शन के दर्शन भी नहीं हुए थे । जब आदमी घर से निकल कर कुछ मनोरंजन करना चाहता था ,तब सिनेमा का टिकट ही एकमात्र साधन हुआ करता था।
ब्लैक में टिकट बेचना अपने आप में एक अच्छा धंधा कहलाता था । उस समय कोई सोच भी नहीं सकता था कि आगे चलकर यह धंधा इतना बर्बाद हो जाएगा कि ब्लैक की बात तो दूर रही ,टिकट भी बेचना मुश्किल हो पड़ेगा । सब यही समझते थे कि बच्चों को ब्लैक में टिकट बेचने की कला अगर सिखा दी जाए और उन्हें कच्ची उम्र में ही इस काम-धंधे की बारीकियों से अवगत करा दिया जाए ,तो उनका भविष्य उज्ज्वल है ।
टिकट के खरीदार ,यह माना जाता था कि ,सात जन्मों तक उपलब्ध रहेंगे और एक बार अगर परिवार में किसी ने टिकट का ब्लैक करने की कला सीख ली तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह एक हुनर के तौर पर परिवार की आजीविका का एक अच्छा साधन बना रहेगा ।
टिकट का ब्लैक करना सबके बल-बूते की बात नहीं होती । इसमें खतरे रहते हैं । उस जमाने में जब टिकट का ब्लैक खूब होता था , तब भी अक्सर पुलिस की रेड पड़ती थी । कभी-कभी कुछ लोग पकड़े जाते थे । लेकिन धंधे में कोई कमी कभी नहीं देखी गई । इसमें वही लोग आते थे ,जो निडर और साहसी होते थे । जिनमें जोखिम उठाने की क्षमता होती थी । जो टिकट को इस अंदाज में अपनी मुट्ठी में रखा करते थे कि खरीदार को तो दिख जाए लेकिन पुलिस को भनक तक न लगे । यह भी बड़ी अजीब बात थी कि उन दिनों टिकट की खिड़की खोलते के साथ ही भगदड़ मच जाती थी और फिर उसके बाद हाउसफुल का बोर्ड लटक जाता था अर्थात सिनेमा का पूरा बाजार कालाबाजारियों के हाथ में चला जाता था ।
अब न सिनेमा के वैसे शौकीन रहे ,न फिल्में मनोरंजन का एकमात्र साधन रह गई हैं। लोगों को व्हाट्सएप और फेसबुक देखने से फुर्सत नहीं । टिकट ब्लैक में बेचने वाले दूसरे काम-धंधे में चले गए । इस तरह सिनेमा के टिकटों का ब्लैक करना ,जो कि एक अच्छी फलती-फूलती कला थी ,समय के हाथों नष्ट हो गई । अब उसकी यादें बची हैं ।
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा ,रामपुर (उत्तर प्रदेश)
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