यादों के धागे
धागे बुनती थी
तेरी यादों के
फिर क्यूँ है
सवाल, बवाल
आध- अधूरी सी
सिलकी सी याद
फिसल जाती है
यादों में तुम को
अक्सर मैंने बुना
फिर हैं सवाल
मैं लिखती हूँ
नज्म में तुमको
बन जाती है
आध- अधूरी
कविता सी मैं
गुम हो जाती हूँ
मैं रोज़- रोज
बुनती हूँ तुझ को
जैसे बिखरे..
सूखे- पत्ते
रेमश की डोरी सी
मैं बुनती हूँ…
अपने स्वेटर
ख्वाब में फंदे
गिन- गिन कर
गुनगुनाती, तपती
धूप में तुम को
बुनती हूँ…
शीला गहलावत सीरत
चण्डीगढ़, हरियाणा