यादों के तटबंध ( समीक्षा)
समीक्ष्य कृति: यादों के तटबंध ( गीत संग्रह)
कवयित्री: शकुंतला अग्रवाल ‘ शकुन ‘
प्रकाशक: साहित्यागार, चौड़ा रास्ता,जयपुर
प्रथम संस्करण,2023
पृष्ठ:112, मूल्य:₹200/-( सजिल्द)
स्वर और लय-ताल बद्ध शब्दों को गीत कहते हैं।काव्य विधाओं में सबसे आकर्षक विधा गीत है। गीत की संगीत के साथ सस्वर प्रस्तुति सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाता है, हृदय पर सरलता से उसकी अमिट छाप पड़ती है। संगीतबद्ध गीत आकर्षक होता है और मंत्रमुग्ध कर देने वाले राग से सुसज्जित हो तो गीत का अपना ही आकर्षण होता है।
‘यादों के तटबंध’ शकुंतला अग्रवाल जी की ऐसी कृति है जिसमें 58 गीत, 4 नवगीत और 26 गीतिकाएँ संकलित हैं। इसमें सर्वप्रथम पुरोवाक है,जिसे डाॅ वीरेंद्र प्रताप सिंह ‘भ्रमर’ जी ने लिखा है तत्पश्चात वसंत जमशेदपुरी ( मामचंद अग्रवाल) द्वारा लिखित भूमिका है। इस कृति के गीतों और गीतिकाओं को जिन छंदों को आधार बनाकर रचा गया है, उनके विधान का उल्लेख शकुन जी के आदरणीय गुरुवर अमरनाथ जी अग्रवाल ने लिखा है। इससे पूर्व भी कवयित्री की कृतियों में आदरणीय अमरनाथ अग्रवाल जी के छंद ज्ञान का निदर्शन हुआ है। भले ही आज के फेसबुकिया लेखन करने वाले लोगों की तरह उन्होंने अपने नाम के पूर्व आचार्य, छंदाचार्य या काव्याचार्य जैसे विशेषणों का प्रयोग नहीं किया है।
कवयित्री ने ताटंक,सरसी,दोहा,लावणी, दोही, उल्लाला, मनोरम,मधुमालती, सार, निधि,विजात, चौपाई और निश्चल छंदों को आधार बनाकर गीत रचे हैं। कृति में संग्रहीत गीतिकाएँ दोहा, रोला, विजात और मधुमालती छंदों पर आधृत हैं।
गीत लेखन के लिए आवश्यक तत्त्वों का पालन कवयित्री ने किया है। प्रत्येक गीत में मुखड़ा और स्थायी के साथ-साथ तीन अंतरे हैं। गीत में प्रायः तीन अंतरों का प्रयोग होता है। मुखड़ा जो श्रोता को गीत के प्रति आकृष्ट करता है तथा पहला अंतरा विषय की भूमिका तैयार करता है, दूसरा विषय-विस्तार करता है तथा अंतिम ( तीसरा ) अंतरा चरमोत्कर्ष की सृष्टि करता है।
अधिकांशतः गीतकार अंतरे में छंद के चारों चरणों का प्रयोग नहीं करते। पहले दो चरणों में समतुकांतता का निर्वाह करने पश्चात तीसरे चरण में टेक ( स्थाई) के समांत के अनुसार तुकांत का प्रयोग किया जाता है। शकुन जी ने कुछ गीतों में इसी पारंपरिक शिल्प का प्रयोग किया है तथा कुछ गीतों में अपनी प्रयोगधर्मिता का परिचय देते हुए गीतों में छंद के चारों चरणों का प्रयोग करते हुए स्थायी के तुकांत का प्रयोग पाँचवीं पंक्ति में किया है। ऐसा कदाचित भाव को विस्तार देने की दृष्टि से किया गया है। पारंपरिक रूप में लिखे गए एक अंतरे का उदाहरण द्रष्टव्य है, जिसमें शकुन जी ने विरह- विदग्ध नायिका के भाव को अभिव्यक्ति दी है-
चातक सी नभ रोज निहारूँ, मेघ मुझे तरसाते।
सुनने को तेरी पद आहट,श्रवण तरस रह जाते।
बैरन नींद अगर आती तो, तेरे दर्शन पाती।
मान न मान मगर ऐ! प्रियवर, तेरी याद सताती। ( टेक) ( पृष्ठ-64)
प्राकृतिक उदापान नायिका की विरह वेदना को उद्दीप्त करते हैं। कवयित्री के गीत ‘विरहा राग सुनाती’ में केवल विरह-पीड़ित नायिका के मनोभावों को ही अभिव्यक्ति नहीं मिली है प्रत्युत अंतरा लेखन की प्रयोगधर्मिता का भी परिचय मिलता है।
तुम जब से प्रदेश गए हो, काटे कटें न रातें।
साँझ-सबेरे मुझे रुलाती, साजन तेरी बातें।
मेरे सोये जज़्बातों को, पुरवा रोज जगाती।
कोयलिया भी अब तो साजन, विरहा राग सुनाती।
गीली लकड़ी सी सुलगूँ मैं, तिल-तिल जलती जाती।
तेरी सुधियों की खुशबू प्रिय! तन-मन को तड़पाती। (टेक) (पृष्ठ-65)
कवयित्री ने मात्र श्रृंगार की ही भावाभिव्यक्ति अपने गीतों में नहीं की है वरन प्रकृति के अनुपम और अद्भुत सौंदर्य का भी चित्रण करते हुए कर्मरत रहने की प्रेरणा दी है।जिस तरह की चित्रात्मक भाषा का प्रयोग कवयित्री ने किया है उससे बिम्ब सजीव हो उठते हैं-
तुहिन कली को चूम रही है, कुक्कुट देते बाँग।
उठ मानव उठ मंजिल ताके,मत कर कोई स्वाँग।
प्राची से आकर दिनकर भी, बाँटे स्वर्णिम प्यार।
कलियों पर तब आए यौवन,भ्रमर करे गुँजार।। (पृष्ठ-24)
जब व्यक्ति के जीवन में दुख आते हैं,तब व्यक्ति हिम्मत हारने लगता है।वह निराश हो जाता है,निराशा मन में कुंठा को जन्मती है और ऐसा व्यक्ति जीवन में कभी भी सफल नहीं होता। कहा भी जाता है- “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।” प्रत्येक परिस्थिति में व्यक्ति को आशावादी रहना चाहिए। यही सफलता का मूलमंत्र है।
राहें यहाँ काँटों भरी,
हिम्मत नहीं मेरी मरी।
कहती सदा सबको खरी,
मैं तो नहीं जग से डरी।
मन बैर से जोड़ो नहीं,
मुख को कभी मोड़ो नहीं। ( पृष्ठ-52)
लोगों में बढ़ती नशे की प्रवृत्ति परिवार,समाज और देश के लिए चिंता का सबब है। नशाखोरी के कारण परिवार में कलह एवं मार-पीट आम बात होती है।साहित्य न केवल समाज का आइना होता है वरन समाज को आइना दिखाने का भी काम करता है। शराब की लत घरों को बर्बाद कर देती है।
मंदिर-मस्जिद भूल गए हैं,अब तो लोग।
याद रहा मदिरालय सबको,है दुर्योग?
ऊधम करते घर आँगन में,खोकर धीर।
पत्नी की आँखों में हर क्षण, ढुलाई नीर।
रूठ गए अब क्यों रसना से, मीठे बोल।
कितने अवगुण हैं अंतस में, आँखें खोल। ( पृष्ठ-75)
भौतिकता की आपा-धापी में व्यक्ति इतना खो गया है कि उसे अपना ही भान नहीं है। भौतिक चीजें सुख प्रदान नहीं करतीं। इनसे हमारे अहं की तुष्टि तो हो सकती है, इनका दिखावा करके क्षण भर के लिए हम अपनी छाती गर्व से चौड़ी कर सकते हैं पर यह बात तो सर्वविदित है कि यह सांसारिक वस्तुएँ नश्वर हैं। सर्वथा नवीन उपमान के माध्यम से कवयित्री ने गीतिका के एक युग्म में भौतिकता के पीछे भागते व्यक्ति को सटीक अभिव्यक्ति दी है।
भौतिक सुख की खातिर नित यहाँ,
पूड़ी सा खुद को ही तल रहा। ( पृष्ठ-92)
प्रकृति का दोहन न केवल धरा के सौंदर्य को नष्ट करता है वरन प्राकृतिक संतुलन को भी बिगाड़ देता है। स्वार्थ में अंधे लोग यह नहीं समझ पाते कि एक दिन हमें इसका दुष्परिणाम भुगतना पड़ेगा। प्रकृति जब क्रुद्ध होती है तो धरा पर चारों ओर हाहाकार मच जाता है। गीतिका का एक युग्म बहुत ही मार्मिकता के साथ इस बात को चित्रित करता है।
विधवा सी सिसके धरा, कौन सुने अब पीर।
फीका लगे बसंत भी, बीते सालों साल।। ( पृष्ठ-102)
कवयित्री के गीतों में जीवन के हर रंग को उकेरा गया है। एक तरफ गीतों में भक्ति की धारा प्रवाहित होती है तो दूसरी तरफ भौतिकता से उपजी पीड़ा भी है। अगर प्रकृति रंगीनियों का चित्रण है तो विरह विदग्धता की पीर भी तरंगायित होती हृदय के तटबंधों को तोड़कर झकझोरती है। सामाजिक विद्रूपताओं को बड़ी ही पैनी नज़र से न केवल देखा गया है अपितु उस सामाजिक यथार्थ को एक शिल्प-साधिका के रूप में कसे हुए शिल्प के साथ गीतों में स्थान भी दिया गया है। शकुन जी के गीतों में हमें भाव और शिल्प का अनूठा संगम दिखाई देता है। इस कृति के माधुर्य गुण संपन्न गीतों में तत्सम, तद्भव और देशज शब्दावली का प्रयोग गीतों को सरस और रोचक बनाता है।
अपनी विशिष्टताओं के कारण यह कृति हिंदी साहित्य जगत में अपना स्थान बनाने में सफल होगी। कृति एवं कृतिकार को हृदय की गहराइयों से अशेष शुभकामनाएँ।
समीक्षक,
डाॅ बिपिन पाण्डेय
रुड़की, हरिद्वार
उत्तराखंड-247667