यादों की दहलीज
यादें अलग अलग शक्लों में ,
आकर बड़ा तड़पाती है हमें।
और बार बार ज़हन में आकर ,
परेशान सा कर देती है हमें ।
आंखों के सामने बनकर तस्वीर ,
कभी ज़ार ज़ार रुलाती है हमें।
कभी किताबो में दर्ज होकर ,
दास्तां बन पहलू में बुलाती है हमें।
गुजरे हुए लम्हें याद दिलाकर ,
कुछ बैचेन सा कर जाती है हमें।
यादें पुरानी चीजों में रवां होकर ,
कहीं गुम कर डालती है क्यों हमें?
जाने क्यों ये अपनी दहलीज पर ,
आने का इशारा करती है हमें ।
जी तो चाहता है की नजर फेर लें,
मगर फिर दर्द भी देती है हमें।
अब करे भी तो क्या करे ये “अनु “,
बड़ी कश्मकश हो रही है हमें।